जीवन फेहरिश्त पर प्रभु का नाम अंत में लिखा है, वह कभी
स्मरण न कर सकेगा। वह जीवन की फेहरिश्त कभी पूरी ही नहीं होती। वह फेहरिश्त बढ़ती
चली जाती है। वह बड़ी होती चली जाती है। एक में से दो चीजें, दो
में से चार, चार में से दस, दस में से
हजार निकलती आती हैं। हर रास्ते से दो नए रास्ते निकल आते हैं और हर शाखा दो
शाखाओं में टूट जाती है और तुम दौड़ते चले जाते हो, दौड़ते चले
जाते हो। जाल बड़ा होता चला जाता है। और जीवन की संपदा और शक्ति और ऊर्जा कम होती
चली जाती है। और तुम सोचते हो, अंत में प्रभु का स्मरण कर
लेंगे। या अपना स्मरण कर लेंगे। या अंत में कर लेंगे ध्यान।
मेरे पास लोग आते हैं,
वे कहते हैं कि संन्यास तो लेना है, लेकिन अभी
नहीं—। अभी तो बहुत कुछ जीवन में करने को पड़ा है। जैसे कि
संन्यास तब लेना है जब जीवन में कुछ करने को न रह जाएगा। कभी ऐसा हुआ है? कभी किसी के जीवन में ऐसा हुआ है कि ऐसी घड़ी आ गयी हो कि अब करने को जीवन
में कुछ भी नहीं रह गया? कभी ऐसा नहीं हुआ। जीवन ऐसा मौका ही
नहीं देता। जीवन तो एक काम पूरा नहीं हुआ कि दस नए काम शुरू करवा देता है। एक
वासना चुकने के करीब आती नहीं कि दस वासनाएं पैदा हो जाती हैं।
वासना बड़ी जन्मदात्री है। दस बच्चे पैदा कर जाती है। ध्यान बांझ
है। विचार बांझ नहीं है। समाधि बांझ है,
उसमें से फिर कुछ पैदा नहीं होता। लेकिन वासना बांझ नहीं है। वासना
तो खूब पैदा करती है—एक वासना से दूसरी, दूसरी से तीसरी, चलता जाता है। श्रृंखला का कोई अंत
नहीं।
ऐसा ही समझो कि तुमने एक कंकड़ झील में फेंका, शांत झील, एक कंकड़ फेंका। जरा सी लहर उठती है, लेकिन एक लहर
दूसरी लहर को उठाती है, दूसरी तीसरी को उठाती है एक छोटा सा कंकड़ मीलों लंबी झील पर लहरें उठा देता है। ऐसी वासना है। एक
छोटा सा भाव वासना का और लहर ही लहर तुम्हारी चेतना की झील पर फैल जाती है। वासना
उठानी तो बहुत आसान, हटानी बहुत कठिन। क्योंकि जब तुम उठाते
हो तब छोटा सा कंकड़ काम दे देता है, लेकिन जब बिठाने चलोगे
तो सारी झील! झील बडी है, सारी लहरों को बिठाना बहुत मुश्किल
हो जाता है। और लोग सोचते हैं कि अंत में याद कर लेंगे। और इन्हीं लोगों ने इस तरह
की कहानियां भी गढ रखी हैं कि अंत में याद करने से सब हो जाता है।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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