प्रश्न है कृष्ण प्रिया का। इसीलिए।
मूढ़ता का जिसे बोध हो जाए,
जिसे ऐसा साफ लगने लगे कि मैं मूढ़ हूं, वह फिर
मूढ़ नहीं रहा। मूढ़ तो वे ही हैं, जिन्हें यह खयाल है कि वे
ज्ञानी हैं; जिन्हें यह खयाल है कि वे जानते हैं।
जिसे यह स्मरण आ जाए कि मैं मूढ़ हूं उसके जीवन में किरण उतरने
लगी; उसके जीवन
में प्रभात आने के करीब हो गया; रातें टूटने लगी।
मैं नहीं जानता हूं--यह जानने का पहला कदम है। मैं जानता
हूं--इसमें अवरोध पड़ जाता है। इसलिए पंडित कभी परमात्मा तक नहीं पहुंच पाते। सरल
हृदय लोग, सीधे-सादे
लोग, जिनका कोई दावा नहीं है, जिन्हें
शास्त्रों का कोई सहारा नहीं है, जिन्हें सिद्धांतों की कोई
पकड़ नहीं है; जो कहते हैं: हमें कुछ भी पता नहीं है--ऐसे जो
लोग हैं, वे जल्दी पहुंच जाते हैं।
पूछती हो: क्या देख और समझ कर आपने मेरे जैसे मूढ़ को भी आश्रम
में स्थान दिया? यही देख कर--कि पंडित नहीं हो।
और मूढ़ता का पता है,
तो मूढ़ता टूट जाएगी। कुछ चीजें हैं, जो बोध से
मर जाती हैं। जैसे अंधेरे में अगर तुम दीया ले आओ, तो अंधेरा
समाप्त हो जाता है। ऐसे ही मूढ़ता में अगर थोड?ा होश आ जाए;
होश का दीया जल जाए--कि मैं मूढ़ हूं--तो मूढ़ता समाप्त हो जाती है।
यह होश असली ज्ञान है। इसलिए यहां जो प्रयोग चल रहा है, वह इसी बात का है; तुमसे पाप तो कम छीनने हैं, तुमसे पांडित्य ज्यादा
छीनना है। पाप से कोई आदमी इतना नहीं भटका हुआ है, जितना
पांडित्य से भटक हुआ है।
तुमने क्या किया है,
उससे बहुत बाधा नहीं है। तुम्हारा अहंकार तुम्हारे पाप के आधार पर
नहीं टिका है। तुम्हारा अहंकार तुम्हारे पाप के आधार पर नहीं टिका है। तुम्हारा
अहंकार तुम्हारे ज्ञान के आधार पर टिका है। तुम्हारा अहंकार तुम्हारे वेद, कुरान, बाइबिल पर टिका है।
तुम्हारे जीवन से सारे शास्त्र हट जाएं; तुम फिर से निर्दोष बच्चों
की भांति हो जाओ; तुम्हारे मन की स्लेट खाली हो जाए, उस पर कुछ लिखावट न रह जाए, उसी घड़ी क्रांति घट
जाएगी।
इधर तुम शून्य हुए कि इधर पूर्ण तुममें उतरना शुरू हुआ। शून्यता
पूर्णता को पाने की पात्रता है।
कण थोड़े कांकर घने
ओशो
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