....और विश्वविद्यालय देता है स्मृति, मेमोरी।
जिंदगी में स्मृति काफी नहीं है। और यह भी बड़े मजे की बात है कि बहुत ज्यादा
स्मृति होना अनिवार्य रूप से बहुत बुद्धिमान होने का लक्षण नहीं है। आमतौर से उलटा
होता है। बहुत बुद्धिमान आदमी की स्मृति कमजोर होती है। बहुत बुद्धिमान लोग
भुलक्कड़ होते हैं। असल में स्मृति बिलकुल यांत्रिक प्रक्रिया है। उससे बुद्धि का
कोई संबंध नहीं है। लेकिन अब तक की सारी शिक्षा स्मृति को ही आरोपित करने में व्यय
होती रही है। जितने पीछे हम लौटेंगे उतनी स्मृति की शिक्षा गहरी थी। स्मरण करा
देना ही शिक्षक का काम था। रटा देना, पक्का मजबूत मन में
बिठा देना, संस्कारित कर देना, कंडीशनिंग
कर देना ही शिक्षा का काम था। शिक्षा ने बुद्धिमत्ता पैदा नहीं की। शिक्षा ने
स्मृति पैदा की है; जो पुनरुक्त कर सकती है।
इसलिए हमारी सारी परीक्षाएं स्मृति की परीक्षाएं हैं, बुद्धिमत्ता की नहीं,
इंटेलिजेंस की नहीं। हम परीक्षाओं में सिर्फ इस बात की जानकारी कर
लेना चाहते हैं कि कौन व्यक्ति ठीक से दोहरा सकता है। लेकिन ठीक से दोहराने वाला
आदमी जिंदगी में खो जाएगा क्योंकि जिंदगी रोज नये सवाल उठाती है। और ठीक से
दोहराने वाला सिर्फ पुराने उत्तर दोहरा सकता है। पुराने उत्तर जिंदगी के नये
सवालों के सामने हार जाते हैं, बेमानी हो जाते हैं। बंधी हुई
टेक्स्ट बुक में जो लिखा है, परीक्षा दे देना एक बात है।
जिंदगी की कोई बंधी हुई परीक्षा नहीं है। जिंदगी बहुत चपल है, बहुत चंचल है, उसकी परीक्षा का बंधा हुआ हिसाब नहीं
है। और जिंदगी की किताब के पीछे कहीं उत्तर नहीं लिखे हैं जिनकी चोरी की जा सके।
तो जिंदगी में जिसे हम विश्वविद्यालय में प्रतिभा कहते हैं, वह जिंदगी में प्रतिभाहीन
होती है। और कई बार तो ऐसा होता है कि विश्वविद्यालय में जिसकी कोई गणना न थी वह
जिंदगी में बड़ा प्रतिभावान सिद्ध हो जाता है। अगर हम दुनिया के प्रतिभाशाली लोगों
के नाम उठा कर देखें तो उनमें से गोल्ड मेडलिस्ट शायद ही कोई होे।
कुछ कारण हैं--स्मृति पर बहुत आधार खतरनाक है। फिकर करनी पड़ेगी
बुद्धि के विकास की। शिक्षा में क्रांति का पहला आधार होगा स्मृति को केंद्र से
हटाएं, बुद्धि
को केंद्र पर रखें। पहला सूत्र आपसे बात करना चाहता हूं। स्मृति नहीं, क्योंकि स्मृति का काम तो अब यंत्रों से भी लिया जा सकता है। टेप-रिकार्डर
और कंप्यूटर भी काम कर देंगे। अब, अब बहुत जल्दी छोटे
कंप्यूटर बन जाएंगे जिनको एक आदमी खीसे में लेकर चल सके और जो भी उत्तर पूछना हो
पूछ ले। फिर गोल्ड मेडलिस्ट का क्या होगा? उसका कोई उपयोग ही
नहीं रह जाने वाला है। उपयोग खत्म हो गया है। रोज-रोज स्मृति का उपयोग कम हुआ है,
बुद्धि का उपयोग बढ़ा है।
पुरानी भाषाएं अगर हम एक दृष्टि डालें तो हमारी समझ में
आएगा--संस्कृत, अरबी,
ग्रीक या लैटिन इस भांति से बनाई गई थीं कि स्मरण की जा सकें। इसलिए
पुरानी भाषाएं गद्य में नहीं, पद्य में लिखी हुई हैं,
कविता में लिखी हैं। पुरानी सारी भाषाएं ऐसी हैं कि उनको गाया जा
सके--जैसे, संस्कृत या अरबी या ग्रीक। गाने से कोई चीज जल्दी
याद की जा सकती है इसलिए पुरानी भाषाएं कविता पर जोर देती थीं। यह जान कर हैरानी
होगी कि संस्कृत में गणित, भूगोल, ज्योतिष
और वैद्यक की किताबें तक काव्य में लिखी गई थीं। उनको याद करने का सवाल था। बड़ा
सवाल याद करने का था कि कोई चीज याद कैसे हो सके? रिदिम अगर
हो तो याद जल्दी हो जाए।
लेकिन जैसे-जैसे मनुष्य की बुद्धि विकसित हुई उसे दिखाई पड़ा कि
सवाल याद करने का नहीं है, सवाल नये को खोजने का है। याद किया जाता है पुराने को, खोजा जाता है नये को। और जो कौम और जो विद्यार्थी और जो शिक्षा याद करने
पर ही निर्भर हो, नये को नहीं खोज पाएगी। नये को याद नहीं
किया जा सकता। याद सिर्फ पुराने को किया जा सकता है। नये को तो खोजना पड़ेगा,
डिस्कवर करना पड़ेगा।
शिक्षा में क्रांति
ओशो
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