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Friday, May 4, 2018

नास्तिक और आस्तिक दोनों का जीवन असत्य का जीवन है।


धार्मिक व्यक्ति न तो आस्तिक होता है, न नास्तिक होता है, धार्मिक व्यक्ति तो खोजी होता है। वह स्वीकार नहीं कर लेता यात्रा के पहले, वह मान नहीं लेता, वह खोज करता है। और जिस दिन उसके प्राण किसी साक्षात को उपलब्ध होते हैं, उसी दिन, उसी दिन वह जानता है। और उस दिन मानने की कोई भी जरूरत नहीं रह जाती, उस दिन विश्वास करने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। उस दिन वह जानता है। जानना ज्ञान, मुक्ति लाता है। विश्वास, मान लेना बंधन पैदा करता है। और ये बंधन, विश्वास के बंधन हमेशा बाहर होते हैं, क्योंकि विश्वास जब भी हम करते हैं तो किसी पर करते हैं, वह बाहर होगा। इसलिए विश्वास हमेशा बहिर्मुखी है और ज्ञान हमेशा अंतर्मुखी है। जिसे स्वयं को जानना है उसे विश्वास का रास्ता छोड़ देना होगा और ज्ञान के रास्ते पर चरण रखने होंगे।

ज्ञान के रास्ते पर चलने का पहला सूत्र होगा, विश्वास के रास्ते से मन को हटा लेना। हम सारे लोग विश्वास के रास्ते पर हैं। इसलिए चाहे हम मंदिरों में जाते हों, चाहे मस्जिदों में, चाहे शास्त्र पढ़ते हों और पूजा करते हों, हमें स्वयं से साक्षात नहीं हो सकेगा। विश्वास के रास्ते से कभी भी स्वयं का साक्षात न हुआ है और न हो सकता है।

विश्वास सबसे बड़ा अधार्मिक गुण है। मनुष्य के व्यक्तित्व को बांध लेने वाले और अंधा कर देने वाले सूत्रों में विश्वास पहला सूत्र है। इसके पहले कि मैं दूसरे सूत्र की बात करूं, मैं एक बार पुनः आपको यह स्पष्ट कर दूं, नास्तिक भी विश्वासी होता है और आस्तिक भी। इसलिए यह न सोच लें कि मैं विश्वास छोड़ने को कह कर नास्तिकता सिखा रहा हूं। नास्तिक भी विश्वासी होता है और आस्तिक भी। क्योंकि दोनों नहीं जानते। और न जानने में जो भी स्वीकार कर लिया जाता है वह अंधा कर देता है। इसलिए ज्ञान के रास्ते पर पहली बात यह जान लेना जरूरी है कि मैं नहीं जानता हूं। और इस न जानने की स्थिति में कोई भी विश्वास करना खतरनाक है। क्योंकि विश्वास से यह भ्रम पैदा होता है, न जानते हुए यह भ्रम पैदा होता है कि मैं जानता हूं। 

मैं एक छोटे से अनाथालय में गया था। और वहां के संयोंजकों ने मुझे कहा कि हम अपने अनाथालय में बच्चों को धर्म की शिक्षा देते हैं। मैंने उनसे कहा कि जहां तक मेरी समझ है, धर्म की कोई शिक्षा हो ही नहीं सकती। धर्म की साधना तो हो सकती है, शिक्षा नहीं। क्योंकि साधना होती है भीतर और शिक्षा होती है बाहर। तो विज्ञान की तो शिक्षा हो सकती है, धर्म की कोई शिक्षा नहीं हो सकती। फिर भी आप क्या शिक्षा देते हैं, मैं जानना चाहूं। 


वे मुझे अपने बच्चों के पास ले गए और उन्होंने कहा, आप इन बच्चों से पूछें, तो आपको पता चल जाएगा। मैंने उनसे ही निवेदन किया कि वे ही पूछें, मैं सुनूंगा। सौ के करीब बच्चे थे, उन्होंने उनसे पूछा, ईश्वर है? उन सारे बच्चों ने हाथ उठाए और कहा, ईश्वर है। उन बच्चों को सिखा दिया गया ईश्वर है। वे छोटे-छोटे अनाथ बच्चे, उन्हें जो भी सिखा दिया जाए, वह सीख लेंगे। अगर संयोग से वे रूस में पैदा हुए होते, तो रूस की हुकूमत उन्हें सिखा देती ईश्वर नहीं है। और मैं अगर रूस में जाकर उनसे पूछता, ईश्वर है? तो वे सारे बच्चे कहते, ईश्वर नहीं है। क्योंकि उन्हें सिखा दी गई होती बात, ईश्वर नहीं है। यहां उन्हें सिखा दिया गया है, ईश्वर है। उन्होंने पूछा, यह ईश्वर कहां है? तो उन सारे बच्चों ने हृदय पर हाथ रखे और कहा, यहां। 


मैंने एक छोटे से बच्चे से पूछा, हृदय कहां है


उस बच्चे ने कहा: यह तो हमें बताया नहीं गया। जो हमें बताया गया है वह हम बता रहे हैं। हृदय कहां है यह हमें बताया नहीं गया। 


इस बच्चे को हृदय का कोई पता नहीं है। लेकिन इसे इस बात को बता दिया गया है कि ईश्वर यहां है। उसने सीख लिया। इस बचपन की अवस्था में जब कि विचार का अभी कोई विकास नहीं हुआ। सारे धर्मों के लोग बच्चों के साथ जो अन्याय करते हैं, उसका हिसाब लगाना कठिन है। जब कि विचार का कोई जन्म नहीं हुआ, तब हम उन्हें जो भी सिखा दें, वह उनके चित्त में गहरा होकर बैठ जाएगा और जीवन भर वे उसी को दोहराते रहेंगे इस भांति जैसे कि जानते हैं। जब कि वे जानते नहीं हैं। वे बच्चे बड़े हो जाएंगे और जब उनके जीवन में प्रश्न उठेगा, ईश्वर है, तो बचपन से सिखी गई बात उनके भीतर से कहेगी, है। यह सिखी हुई बात, और जब प्रश्न उठेगा, ईश्वर कहां है, तो उनके हाथ मशीनों की तरह उठ जाएंगे और हृदय पर पहुंच जाएंगे और वे कहेंगे, यहां। यह हाथ झूठा है। यह हाथ जो उठ रहा है, यह सच्चा नहीं है। इस बच्चे का कोई भी अनुभव नहीं है कि ईश्वर है और है तो कहां है। लेकिन बचपन से दोहराई गई बात, बहुत बार दोहराई गई बात, दूसरों के द्वारा, खुद के द्वारा, यह भूल जाएगा कि यह बात मैंने सिखी है यह बात मैं जानता नहीं हूं। और तब अज्ञान तो होगा इसके भीतर, ऊपर से झूठा ज्ञान चिपक जाएगा, जो इसे जीवन भर धोखा देगा। 


हम सब भी ऐसे ही बच्चे हैं, जो इसी तरह की बातों को सीख कर बड़े हो गए हैं। इसके पहले कि कोई सत्य की खोज में विचार करे, स्वयं को जानने के लिए उत्सुक हो, या परमात्मा की खोज में निकले, उसे अपने से बहुत गहरे में पूछ लेना चाहिए, जो मैं जानता हूं, वह कहीं सीखा हुआ तो नहीं है? अगर वह सीखा हुआ है, तो उससे मुक्त हो जाना चाहिए। क्योंकि जो सीखा हुआ है वह ज्ञान का भ्रम देता है, ज्ञान नहीं। 


ज्ञान सीखा नहीं जाता, जाना जाता है। ज्ञान दूसरों से उपलब्ध नहीं होता, खुद में खोदा जाता है और विकसित होता है। शब्द सीखे जाते हैं, ज्ञान उघाड़ा जाता है। ज्ञान की एक डिस्कवरी है, ज्ञान का एक अनावरण है। खुद के प्राणों के भीतर जब हम पर्दों को उघाड़ते हैं, तो वह उपलब्ध होता है जो ज्ञान है। और दूसरों से जो हम शब्द सीख लेते हैं, सिद्धांत सीख लेते है और शास्त्र सीख लेते हैं वह ज्ञान नहीं है। और जो आदमी जितना सीखे हुए शब्दों में खो जाता है उस आदमी की ज्ञान की तरफ यात्रा बंद हो जाती है। 

अंतर की खोज 

ओशो

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