इसके दोहरे कारण हो सकते हैं। ऐसे तो बहुत हो सकते हैं, लेकिन मोटा दो का विभाजन
अच्छा होगा। या तो यह हो सकता है कि वह सिर्फ कल्पना कर रहा है, अनुभव नहीं कर रहा। तो कल्पना करने में भी मेरी मौजूदगी में उसको सहारा
मिलेगा। अकेले में मुश्किल पड़ेगी कल्पना करने में। कल्पना भी सहारे मांगती है। तो
मेरी मौजूदगी में वह जल्दी कल्पना कर पाएगा। और कल्पना को अनुभव समझने में बड़ी
आसानी मेरी मौजूदगी में हो जाएगी। घर वैसा अनुभव हो तो शायद सोचे कि कल्पना ही हो
रही है।
तो एक तो संभावना,
बहुत संभावना यही है कि जो अनुभव मेरी मौजूदगी में होता है, खयाल में आता है, और पीछे नहीं होता, उसमें निन्यानबे मौके पर यह है कि वह कल्पना की गई थी, कल्पना कर ली गई थी। लेकिन एक संभावना यह भी है कि तुमने कल्पना नहीं की
थी, सच में ही तुमने एक छलांग लगाई थी, तुम जमीन से दो फीट ऊंचे कूद गए थे। एक क्षण को तुमने अपनी गर्दन उठा कर
कुछ ऊंचाई पर देख लिया था। लेकिन फिर वापस तुम जमीन पर खड़े हो गए हो। इसकी भी
संभावना है।
दोनों का फायदा हो सकता है। असल में कल्पना भी तुमने की तो वह
भी तो सूचक है कि तुम कल्पना करना चाहते हो। असल में तुम तो अनुभव ही करना चाहते
हो, इसीलिए
कल्पना भी कर ली है। सूचक तो है ही। सभी को कल्पना भी न हो जाएगी। यानी यह मत सोच
लेना कि सभी पास आ जाएंगे तो उनको कल्पना भी हो जाएगी। सभी को कल्पना भी न हो
जाएगी। तुम्हें कल्पना भी हुई तो भी तुम्हारे भीतर कुछ कल्पना होने की संभावना तो
है ही। अनुभव की आकांक्षा तो है ही। सबीज है आकांक्षा, इसलिए
कल्पना हो गई। कल निर्बीज हो सके, तो अनुभव भी हो जाएगा।
इसलिए ऐसे व्यक्ति को जिसे कल्पना हो गई, उसे मैं कहूंगा कि वह इस
सत्य को समझे कि कल्पना हो गई। हालांकि वह बहुत जोर देगा कि नहीं, अनुभव हो गया। उसका जोर भी अर्थपूर्ण है। यानी वह बेचारा यह कह रहा है कि
अनुभव करना चाहता हूं, इसलिए कैसे आप कह रहे हैं कि कल्पना
हो गई, मुझे अनुभव हो गया। पर वह समझ नहीं पा रहा है कि अगर
इस कल्पना को अनुभव समझा गया, तो फिर अनुभव कभी न हो सकेगा।
अगर यह कल्पना ही है,
अगर यह कल्पना ही है, तो मेरे निकट घटी,
इसकी कैसे जांच कर सकोगे कि कल्पना है या सच में ही मेरे करीब तुमने
एक क्षण ऊंचे होकर देख लिया?
दोनों ही पीछे खो सकते हैं। लेकिन अगर कल्पना ही रही होगी, तो तुम्हारा व्यक्तित्व ठीक
वैसा ही बना रहेगा जैसा इसके पहले था। लेकिन अगर तुमने एक कदम ऊंचा उठ कर देख लिया
होगा और फिर खो गया, तो भी तुम्हारे व्यक्तित्व में परिवर्तन
हो जाएगा। तुम्हारा व्यक्तित्व वही नहीं रह सकेगा पीछे जैसा था। यही कसौटी होगी।
मेरा मतलब समझ रहे हो न तुम? भला तुम्हें वह अनुभव घर जाकर न मिल सके,
लेकिन तुम अब वही आदमी न हो सकोगे जो तुम उस अनुभव के पहले थे। अगर
तुम वही आदमी फिर हो जाते हो और अनुभव भी नहीं मिलता, तो
जानना कि कल्पना थी। क्योंकि कल्पना व्यक्तित्व को नहीं छू पाती। बस वही कसौटी का
आधार है। अनुभव व्यक्तित्व को छूता है, चाहे क्षण भर को ही
हो। इससे क्या फर्क पड़ता है!
जो घर बारे अपना
ओशो
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