एक फकीर बहुत अकेला था। स्वप्न में उसे परमात्मा के दर्शन हुए
तो उसने पाया कि परमात्मा तो उससे भी अकेला है। निश्चय ही वह बहुत हैरान हुआ और
उसने भगवान से पूछा, क्या आप भी इतने अकेले हैं? लेकिन आपके तो इतने भक्त
हैं, वे सब कहां हैं? यह सुन कर भगवान
ने उससे कहा था, मैं तो सदा से अकेला ही हूं और इसलिए ही जो
नितांत अकेले हो जाते हैं वे ही केवल मेरा अनुभव कर पाते हैं। रही भक्तों और
तथाकथित धार्मिकों की बात, सो वे मेरे साथ कब थे? उनमें से कोई राम के साथ है, कोई कृष्ण के, कोई मोहम्मद के और कोई महावीर के। उनमें से मेरे साथ तो कोई भी नहीं है।
मैं तो सदा का ही अकेला हूं। और इसलिए जो किसी के भी साथ नहीं है, बस अकेला ही है वही केवल मेरे साथ है।
वह फकीर आधी रात ही घबड़ाहट में जाग गया था और भागा हुआ मेरे पास
आया था। आते ही उसने मुझे उठाया और कहाः मेरे इस स्वप्न का क्या अर्थ है? मैंने कहाः स्वप्न होता तो
मैं अर्थ भी करता, लेकिन यह तो सत्य ही है। और सत्य का भी
क्या अर्थ करना होगा? आंखें खोलो और देखो। धर्म के नाम पर जो
हिंदू है, मुसलमान है, बौद्ध है ,
या ईसाई, वह धार्मिक ही नहीं है। क्योंकि धर्म
तो एक ही है--या जो एक है, वही धर्म है। धार्मिक चित्त के
लिए मनुष्य निर्मित सीमाएं सत्य नहीं हैं। सत्य के अनुभव में संप्रदाय कहां,
शास्त्र कहां, संगठन कहां? उस असीम में सीमा कहा? उस निःशब्द में सिद्धांत कहां?
उस शून्य में मंदिर कहां, मस्जिद कहां?
और फिर जो शेष रह जाता है, वही तो परमात्मा
है।
और इसके पहले कि मैं शिक्षा और धर्म पर आपसे कुछ कहूं, यह कह देना अत्यंत आवश्यक
है कि धर्म से मेरा अर्थ धर्मों से नहीं। धार्मिक होना हिंदू और मुसलमान होने से
बहुत अलग बात है। सांप्रदायिक होना धार्मिक होना तो है ही नहीं, उलटे, वही धार्मिक होने में सबसे बड़ी बाधा है। जब तक
कोई हिंदू है या मुसलमान है, तब तक उसका धार्मिक होना असंभव
है। और जितने लोग धर्म और शिक्षा के लिए विचार करते हैं और जो शिक्षा से धर्म को
जोड़ना चाहते हैं, धर्म से उनका अर्थ या तो हिंदू होता है या
मुसलमान होता है या ईसाई। ऐसी धार्मिक शिक्षा धर्म को नहीं लाएगी, वह मनुष्य को और अधिक अधार्मिक जरूर बना सकती है। इस तरह की शिक्षा तो कोई
चार-पांच हजार वर्ष से मनुष्य को दी जाती रही है। लेकिन उससे कोई बेहतर मनुष्य पैदा
नहीं हुआ, उससे कोई अच्छा समाज पैदा नहीं हुआ। लेकिन हिंदू,
मुसलमान और ईसाई के नामों पर जितना अधर्म, जितनी
हिंसा और जितना रक्तपात हुआ है उतना किसी और बात से नहीं हुआ है।
यह जान कर बहुत हैरानी होती है कि नास्तिकों के ऊपर, उनके ऊपर जो धर्म के
विश्वासी नहीं हैं, बड़े पापों का कोई जिम्मा नहीं है। बड़े
पाप उन लोगों के नाम पर हैं जो आस्तिक हैं। नास्तिकों ने न तो कोई मंदिर जलाए हैं
और न लोगों की हत्याएं की हैं। हत्याएं की हैं उन लोगों ने जो आस्तिक हैं। मनुष्य
को मनुष्य से विभाजित भी उन लोगों न किया है जो आस्तिक हैं। जो अपने को धार्मिक
समझते हैं उन्होंने ही मनुष्य और मनुष्य के बीच दीवालें खड़ी की हैं। शब्दों,
सिद्धांतों और शास्त्रों ने मनुष्य को मनुष्य का शत्रु बना दिया है।
वादों और पक्षों ने अलंघ्य खाइयां खोद दी हैं और मनुष्य जाति को अपने ही हाथों से
निर्मित छोटे-छोटे द्वीपों पर कैद कर दिया है।
धर्म के नाम पर ऐसी शिक्षा आगे भी दिए चले जाना अत्यंत खतरनाक
है। यह शिक्षा न धार्मिक है, न कभी धार्मिक रही है और न आगे ही हो सकती है। क्योंकि ये बातें जिन लोगों
को सिखाई गईं, वे लोग कोई अच्छे मनुष्य सिद्ध नहीं हुए। और
इन बातों के नाम पर जो संघर्ष खड़े हुए उन्होंने मनुष्य के पूरे चित्त को रक्तपात
और हिंसा, क्रोध और घृणा से भर दिया है। इसलिए सबसे पहली बात
तो मैं यह कहना चाहता हूं कि धर्म की शिक्षा से मेरा प्रयोजन किसी संप्रदाय,
उसकी धारणाओं, उसके सिद्धांतों की शिक्षा से
नहीं है। यदि हम चाहते हैं कि शिक्षा और धर्म संबंधित हों तो हमें चाहना होगा कि
हिंदू, मुसलमान और ईसाई शब्दों से धर्म का संबंध टूट जाए,
तो ही शिक्षा और धर्म संबंधित हो सकते हैं। लेकिन धर्म के नाम पर
संप्रदायों का संबंध तो शिक्षा से कभी भी न होना चाहिए। उससे तो अधार्मिक होना ही
बेहतर है। क्योंकि अधार्मिक के धार्मिक होने की संभावना तो सदा ही जीवंत होती है।
जब कि तथाकथित धार्मिक व्यक्ति के चित्त के द्वार तो सदा के लिए ही बंद हो जाते
हैं। और जिसके चित्त के द्वार बंद हैं वह तो धार्मिक कभी हो ही नहीं सकता है। सत्य
की खोज में चित्त का मुक्त और खुला हुआ होना तो अत्यंत अनिवार्य है।
शिक्षा में क्रांति
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