....युद्ध का काल और युद्ध की तैयारी का काल। अभी तक शांति का कोई काल हमने नहीं
जाना है। और ऐसी जो मनुष्य-जाति की स्थिति है, उसमें उसके खंड-खंड में विभाजित होने का
आधारभूत हाथ है। और किसने मनुष्य विभाजित किया है?...किसने?
क्या धर्मों ने नहीं? क्या आइडियालाॅजी,
विचारवाद, सिद्धांत और संप्रदायों ने नहीं?
क्या राष्ट्रों, राष्ट्रीयताओं और सीमित बनाने
वाली धारणाओं ने ही नहीं? मनुष्यता को खंड-खंड में तोड़ने
वाले धर्म ही हैं।
समस्त द्वंद्व और कलह के पीछे वाद हैं। फिर चाहे वे वाद धर्म के
हों या राजनीति के, वाद-विवाद पैदा करते हैं और विवाद अंततः युद्धों में ले जाते हैं। आज भी
सोवियत साम्यवाद और अमरीकी लोकतंत्र, दो धर्म बन कर खंड हो
गए हैं। उनकी भी लड़ाई दो धर्मों की लड़ाई हो गई है। लेकिन मैं पूछता हूं कि क्या यह
नहीं हो सकता कि हम विचार के आधार पर मनुष्य के विभाजन को समाप्त कर दें? क्या यह उचित है कि विचार जैसी बहुत हवाई चीज के लिए हम मनुष्य की हत्या
करें? क्या यह उचित है कि मेरा विचार और आपका विचार, मेरे हृदय और आपके हृदय को शत्रु बना दें?
लेकिन अब तक यही हुआ है। और अब तक धर्मों के या राष्ट्रों के
नाम पर खड़े हुए संगठन हमारे प्रेम के संगठन नहीं हैं। बल्कि वे हमारी घृणा के
संगठन हैं। और इसलिए आपको ज्ञात होगा कि घृणा का जहर जोर से फैला दिया जाए तो किसी
को भी संगठित किया जा सकता है। संभवतः एडोल्फ हिटलर ने कहीं कहा है कि यदि किसी
कौम को संगठित करना हो तो किसी दूसरी कौम के प्रति घृणा पैदा कर देनी आवश्यक है।
उसने यह कहा ही हो सो नहीं, उसने यह किया भी और इसे कारगर भी पाया।
पृथ्वी को विषाक्त करने वाले सारे उपद्रवी लोग इसे सदा से ही
कारगर पाते रहे हैं। इस्लाम खतरे में है,
ऐसा नारा देकर मुसलमानों को इकट्ठा किया जा सकता है। हिंदू धर्म
खतरे में बताया जाए तो हिंदू इकट्ठे हो जाते हैं। खतरा भय पैदा करता है। और जिससे
भय है उसके प्रति घृणा पैदा हो जाती है। ऐसे सारे संगठन और एकताएं भय और घृणा पर
ही खड़ी होती हैं। इसलिए सारे धर्म प्रेम की बातें तो जरूर करते हैं, लेकिन चूंकि उन्हें संगठन चाहिए इसलिए अंततः वे घृणा का ही सहारा लेते
हैं। और तब प्रेम कोरी बातचीत रह जाती है और घृणा उनका आधार बन जाती है।
शिक्षा में क्रांति
ओशो
No comments:
Post a Comment