चित्त जिसका परतंत्रता में है, वह सत्य को कैसे जानेगा? यह मैंने पहले चरण में विस्तार से बात की। दूसरे चरण में मैंने कहा कि चित्त सरल हो। और सरलता का मैंने अर्थ नहीं किया कि आप कम कपड़े पहनें या कम भोजन करें तो आप सरल हो जाएंगे। या कि आप घर-द्वार छोड़ दें तो आप सरल हो जाएंगे। सरलता बहुत गहरी बात है। इन छोटी सी बातों से सरलता का कोई विशेष संबंध नहीं है। और यह भी हो सकता है कि बहुत जटिल लोग, जिनका चित्त बहुत जटिल, बहुत कठिन है, जिनका चित्त बहुत कठोर और पत्थर की तरह ग्रंथियों से भरा है, वे लोग भी इस तरह के वेशभूषा के परिवर्तन को कर लें। वे लोग भी कम खाएं, कम कपड़े पहनें, घर-द्वार छोड़ दें। कोई जटिल मनुष्य भी इस भांति की सरलता को थोप सकता है। इस सरलता का कोई मूल्य नहीं है।
सरलता का मैंने अर्थ किया: चित्त द्वंद्व-शून्य हो जाए और चित्त के खंड-खंड हिस्से विलीन हो जाएं और चित्त अखंड हो जाए, इंटीग्रेटेड हो जाए, समग्र हो जाए। मेरे भीतर बहुत से व्यक्ति न रहें, एक व्यक्ति का जन्म हो जाए। मैं इंडिविजुअल हो जाऊं। मेरे भीतर एक स्वर रह जाए। मेरे भीतर प्रेम हो तो घृणा न रहे। घृणा और प्रेम जिसके साथ-साथ हैं, उस आदमी का चित्त सरल नहीं हो सकता। जिस आदमी के भीतर शांति और अशांति दोनों हैं, उस आदमी का चित्त सरल नहीं हो सकता। दोनों में से एक रह जाए तो चित्त सरल हो सकता है। अगर मात्र अशांति रह जाए तो भी चित्त सरल हो जाएगा या मात्र शांति रह जाए तो भी चित्त सरल हो जाएगा।
आप जानते हैं, अगर कोई आदमी इतना अशांत हो जाए कि उसके भीतर शांति का कण भी न रहे, तो भी क्रांति हो जाएगी। उतनी अशांति में भी क्रांति हो जाएगी। उस क्लाइमेक्स पर भी, उस चरम बिंदु पर भी अशांति की अंतिम सीमा पर पहुंच कर एकदम से सब विलीन हो जाएगा और वह चित्त एकदम शांत हो जाएगा। जैसे कोई तीर को चलाता है तो प्रत्यंचा को पीछे खींचता है। तीर को फेंकना तो आगे है, खींचते पीछे हैं। उलटा दिखेगा। कोई आदमी कहेगा, तीर को फेंकना तो आगे है और खींचते पीछे हैं! आगे फेंकना है तो आगे फेंकें, पीछे क्यों खींचते हैं? उलटा क्यों कर रहे हैं? लेकिन अपनी प्रत्यंचा को धनुर्धारी खींचता चला जाता है। एक सीमा आती है अंतिम कि और आगे नहीं खींचा जा सकता। खींचने का अंतिम बिंदु आता है और प्रत्यंचा छूट जाती है, और तीर जो कि पीछे गया था, वह विपरीत दिशा में गति कर जाता है। ठीक वैसे ही अगर चित्त पूरा अशांत हो, तो अशांति के अंतिम बिंदु पर पहुंच कर तीर छूट जाता है और शांति की दिशा में गति हो जाती है।
धन्य हैं वे जो पूरे अशांत हैं, क्योंकि शांति उनका भाग्य होगी। लेकिन हम बहुत अधूरे लोग हैं। हम अशांत पूरे नहीं हैं। हम काफी संतुष्ट हैं और काफी शांत हैं। यह जो बीच का मन है, यह कठिन मन है, यह जटिल मन है। इसमें दोनों हैं। इसमें शांति भी, अशांति भी; प्रेम भी, घृणा भी; और सारी बातें। यह जो द्वंद्व है, यह द्वंद्व सत्य तक नहीं जाने देता। या चित्त पूरा शांत हो जाए, तो जीवन में सत्य का अनुभव हो सकता है। अतियों पर क्रांति होती है, एक्सट्रीम पर क्रांति होती है। बीच में कोई क्रांति नहीं होती। इसलिए जो मध्य में है, वह हमेशा सत्य से दूर बना रहता है। अति पर क्रांति होती है। दुख का अति मनुष्य को दुख के बाहर फेंक देता है। लेकिन हम कभी अति तक दुखी नहीं होते। हम हर दुख को भुला लेते हैं और हर दुख को समझाने का कोई मार्ग निकाल लेते हैं।
अमृत की दिशा
ओशो
No comments:
Post a Comment