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Thursday, May 21, 2020

अंतर्यात्रा कैसे शुरू होती है?

संसार में हार जाना; वासना में हार जाना; तृष्णा की असफलता परमात्मा में ले जाती है, अंतर्गमन में ले जाती है। जीवन जैसा तुम जी रहे हो, व्यर्थ है, इसकी प्रगाढ़ चोट जगा जाती है। फिर बाहर के जीवन में उत्सुकता नहीं रह जाती।





इसे थोड़ा समझो। क्योंकि मैं देखता हूं बहुत से लोग अंतर्जीवन में उत्सुक होते हैं, लेकिन चोट नहीं पड़ी है। बाहर का जीवन असफल नहीं हुआ है। और भीतर के जीवन में उत्सुक हो रहे हैं। तो उनका भीतर का जीवन भी बाहर के जीवन का ही एक हिस्सा होता है; भीतर का जीवन नहीं होता। उनका मंदिर भी दुकान का ही एक कोना होता है। उनकी प्रार्थना भी उनके बही—खातों का प्रारंभ होती है—श्री गणेशाय नम:। बही—खाते का प्रारंभ भगवान से। ठीक से चले दुकान तो परमात्मा का स्मरण कर लेते हैं। परमात्मा का स्मरण करके नर्क की व्यवस्था करते हैं।




जहां तक मुझे पता है, इन दुकानदारों ने नर्क के दरवाजे पर भी लिख दिया होगा—श्री गणेशाय नम:। उनकी यात्रा.. तुमने चोरों को देखा? चोर भी जाते हैं चोरी को तो भगवान का नाम लेकर जाते हैं। मेरे पास आ जाते हैं ऐसे कुछ लोग। वे कहते हैं, आशीर्वाद दे दें, इच्छा पूरी हो जाए।



तुम इच्छा तो बताओ!



अब आप तो सब जानते ही हैं।



किसी को मुकदमा जीतना है.. तुम्हारी इच्छाएं व्यर्थ नहीं हो गई हैं जब तक, तब तक अंतर्यात्रा शुरू न होगी। तुम मंदिर में फूल चढ़ा आओगे, वह भी तरकीब होगी संसार में सफल हो जाने की। भगवान को भी राजी कर लो, कौन जाने कोई बीच में अड़ंगा डाल दे!





गणेश का नाम इसीलिए शुरू में लिखा जाता है। कहते हैं, गणेश उपद्रवी थे। जो प्रारंभिक कथा है, वह बड़ी मजेदार है। गणेश उपद्रवी थे और दूसरों के कार्यों में विग्‍न—बाधा डालते थे। इसलिए उनका नाम लोग शुरू में ही लेने लगे कि उनको पहले ही राजी कर लो। फिर तो धीरे—धीरे लोग भूल ही गए कि असली बात क्या थी! असली बात सिर्फ यही थी कि उनके उपद्रव के डर से लोग कुछ भी काम करते—शादी—विवाह करते, दुकान खोलते, मकान बनाते—उनका नाम पहले ले लेते कि तुम राजी रहना। हम तुम्हारे ही हैं, हमारी तरफ खयाल रखना। धीरे—धीरे बात बदल गई। अब तो गणेश जो हैं, वे मंगल के देवता हो गए हैं। धीरे—धीरे लोग भूल ही गए कि उनकी याद करते थे, उनके विध्‍न—उपद्रव की प्रवृत्ति के कारण। शब्द ने एक करवट ले ली, नया अर्थ ले लिया।





लोग मंदिर में फूल चढ़ा आते हैं, मजार पर हो आते हैं फकीर की, ताबीज बांध लेते हैं धर्म का, लेकिन संसार के लिए।



पूछा है, 'आप कहते हैं, कामना बहिर्गामी है।’




समस्त कामनाएं बहिर्गामी हैं; कामना मात्र बहिर्गामी है। भीतर ले जाने वाली कोई भी कामना नहीं है। कामना ले ही जाती बाहर है। तो स्वभावत: प्रश्न उठता है, फिर हम भीतर कैसे जाएं? क्योंकि जब कोई कामना ही भीतर जाने की न होगी तो हम भीतर जाने का प्रयास क्यों करेंगे!




वासना की असफलता, कामना की विफलता, संसार की पराजय। भीतर जाने की कोई वासना नहीं है, जब सभी वासनाएं हार जाती हैं, तुम अचानक भीतर सरकने लगते हो। जब सभी वासनाएं हार जाती हैं, तुम बाहर नहीं जाते; बाहर जाना व्यर्थ हो गया। और तब अचानक तुम भीतर खींचे जाते हो।


इस फर्क को समझ लेना : भीतर कोई नहीं जाता। तुम बाहर जाते हो, बाहर जा सकते हो, भीतर खींचे जाते हो; इसलिए भीतर पहुंचना प्रसादरूप हैं। बाहर भर मत जाओ, भीतर खींच लिए जाओगे। तुम बाहर पकड़े हो जोर से किनारों को, इसलिए भीतर की धार तुम्हें खींच नहीं पाती। तुमने नाव को किनारे की खूंटियों से बांध दिया है, अन्यथा नदी समर्थ है इसको ले जाने में बड़ी दूर की यात्रा पर। वासना नहीं है भीतर जाने की कोई। मोक्ष की कामना कोई भी नहीं होती। जब कोई कामना नहीं होती, तब उस दशा का नाम मोक्ष है।

एस धम्मो सनंतनो


ओशो


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