मोरारजी देसाई ने चार-छह दिन पहले ही एक वक्तव्य में कहा कि जब
मैं प्रधान मंत्री था और कैनेडा गया...। तो उनकी उम्र करीब तेरासी वर्ष थी तब।
तेरासी वर्ष की उम्र में भी उनको कैनेडा में देखने योग्य चीज क्या अनुभव में आई? वह था नाइट क्लब, जहां कैबरे नृत्य होता है, स्त्रियां अपने वस्त्र
उघाड़-उघाड़ कर फेंक देती हैं, धीरे-धीरे नग्न हो जाती हैं।
कारण क्या देते हैं वे?
कि मैं जानना चाहता था कि नाइट क्लब में होता क्या है!
मगर जान कर तुम्हें जरूरत क्या? तेरासी वर्ष की उम्र में तुम्हें यह उत्सुकता
क्या? कि वहां क्या होता है! होने दो। इतनी बड़ी दुनिया है,
इतनी चीजें हो रही हैं! कैनेडा में और कुछ नहीं हो रहा था, सिर्फ नाइट क्लब ही हो रहे थे? कैनेडा में कुछ और
देखने योग्य न लगा? नाइट क्लब! और वह भी चोरी से गए! चोरी से
भी जाने योग्य लगा! क्योंकि पता चल जाए कि नाइट क्लब में गए हैं, कैबरे नृत्य देखने गए हैं, तो बदनामी होगी। और
मोरारजी देसाई तो महात्मा समझो! ऋषि-मुनि हैं!
मगर उन्होंने यह बात अब क्यों कही? अब कही, उसके पीछे और कारण है। गुजरात विद्यापीठ के विद्यार्थियों के सामने वे
अपने ब्रह्मचर्य की घोषणा कर रहे थे, उसमें यह बात भी कह गए,
कि मेरा ब्रह्मचर्य वहां भी डिगा-मिगा नहीं! तेरासी वर्ष की उम्र
में कैबरे नृत्य देखने गए, ब्रह्मचर्य डिगा नहीं उनका! यह तो
यूं हुआ कि कब्र में कोई पड़ा हो, और चारों तरफ कैबरे नृत्य
होता रहे, और कब्र में पड़ा हुआ महात्मा कहे, अरे नाचते रहो! मैं अपने ब्रह्मचर्य में पक्का, लंगोट
का पक्का! ऐसा कस कर लंगोट बांधा है कि क्या तुम मुझे हिलाओगे!
तो उन्होंने बड़ा रस लेकर वर्णन किया है! कि जैसे ही मैं अंदर
गया, चार सुंदर
स्त्रियां, जो मुझे पहचान गईं, क्योंकि
अखबारों में उन्होंने तस्वीर देखी होगी, आकर एकदम मेरे पास
नाचने लगीं, हाव-भाव प्रकट करने लगीं। मगर मैं भी बिलकुल
संयम साधे, नियंत्रण किए, अडिग खड़ा
रहा!
अब यह संयम साधना,
और यह अडिग खड़े होना, और यह नियंत्रण को बनाए
रखना--यह सब किस बात का सबूत है?
अभी भी वही सब रोग भीतर छाए हुए हैं--अभी भी! कहीं कुछ भेद नहीं
पड़ा! नहीं तो नियंत्रण की भी क्या जरूरत थी?
यह इतना संयम बांधने की भी क्या जरूरत थी? अरे,
नाचती थीं, तो नाचने देना था! बैठते और
प्रसन्न होते। अगर नाच अच्छा था, तो प्रशंसा करनी थी। या कम
से कम कुछ न बनता तो थोड़ा नाचते! मगर बिलकुल खड़े रहे अपने को सम्हाले हुए! कि कहीं
पैर फिसल न जाए!
पैर फिसलने का डर?
ये विकृतियां हैं। फिर आदमी विकृतियों से निकलता है...।
जैसे ही व्यक्ति दमन करेगा, वैसे ही उसके भीतर जो दमित वेग हैं, वे पीछे के दरवाजों से रास्ते बनाने लगेंगे। उस व्यक्ति के जीवन में
दोहरापन पैदा हो जाएगा; या अनेकता पैदा हो जाएगी। उसके बहुत
चेहरे हो जाएंगे। वह खंड-खंड हो जाएगा। कहेगा कुछ, करेगा कुछ,
सोचेगा कुछ, सपने कुछ देखेगा। उसके जीवन में
विकृति ही हो जाएगी। उसके जीवन की एकता खंडित हो जाएगी।
ब्रह्मचर्य का यह अर्थ नहीं है। ब्रह्मचर्य शब्द में ही अर्थ
छिपा हुआ है: ब्रह्म जैसी चर्या;
ईश्वरीय आचरण; दिव्य आचरण। दमित व्यक्ति का
आचरण दिव्य तो हो ही नहीं सकता। अदिव्य हो जाएगा; पाशविक हो
जाएगा। पशु से भी नीचे गिर जाएगा।
दिव्य आचरण तो एक ही ढंग से हो सकता है कि तुम्हारे भीतर जो काम
की ऊर्जा है, वह
ध्यान से जुड़ जाए। ध्यान और काम तुम्हारे भीतर जब जुड़ते हैं तो ब्रह्मचर्य फलित
होता है। ब्रह्मचर्य फूल है ध्यान और काम की ऊर्जा के जुड़ जाने का। ध्यान अगर
अकेला हो और उसमें काम की ऊर्जा न हो, तो फूल कुम्हलाया हुआ
होगा; उसमें शक्ति न होगी। और अगर काम अकेला हो, उसमें ध्यान न हो, तो वह तुम्हें पतन के गर्त में ले
जाएगा।
काश! ये दोनों जुड़ जाएं,
ध्यान और काम। काम है शरीर की शक्ति और ध्यान है आत्मा की शक्ति। और
जहां ध्यान और काम जुड़े, वहां आत्मा और शरीर की शक्ति जुड़
गई। फिर तुम इस महान ऊर्जा के आधार पर उस अंतिम यात्रा पर निकल सकते हो, जो ब्रह्म की यात्रा है। तब तुम्हारे जीवन में ब्रह्मचर्य होगा।
अनहद में बिसराम
ओशो
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