व्यक्तित्व
तुम एक भीड़ हो,
बड़ी भीड़। तुम्हें जरा नजदीक से, जरा गहराई से
देखना पड़ेगा और तुम स्वयं के भीतर बहुत से लोगों को पाओगे। और वे सारे लोग समय-समय
पर नाटक करते हैं तुम होने का। जब तुम क्रोधित होते हो, एक
तरह का व्यक्तित्व तुम पर हावी हो जाता है और नाटक करता है कि यह तुम हो। जब तुम
प्रेमपूर्ण होते हो, तब एक दूसरा व्यक्तित्व तुम पर हावी
होता है और नाटक करता है कि यह तुम हो।
यह बात न केवल तुम्हें विभ्रम में डालने वाली है बल्कि जो भी
तुम्हारे संपर्क में आता है उन सबको विभ्रम में डालने वाली है, क्योंकि वे कुछ तय नहीं कर
पाते। वे स्वयं ही एक भीड़ हैं।
और हर संबंध में केवल दो व्यक्ति ही विवाहित नहीं हो रहे हैं, बल्कि दो भीड़़ें विवाहित हो
रही हैं। अब लगातार घमासान युद्ध होने जा रहा है, क्योंकि
मुश्किल से ही ऐसे क्षण आयेंगे- बस भूल चूक से- जब तुम्हारा प्रेमपूर्ण व्यक्ति और
दूसरे का प्रेमपूर्ण व्यक्ति प्रभाव में रहेंगे। अन्यथा तो तुम चूकते ही जाते हो।
तुम प्रेमपूर्ण हो, लेकिन दूसरा दुःखी, क्रोधित और चिन्तित है। और जब वह प्रेमपूर्ण दशा में है, तब तुम प्रेमपूर्ण नहीं हो। और इन व्यक्तित्वों को अपनी ओर से लाने का कोई
उपाय नहीं है; वे अपनी ही मर्जी से चलते हैं।
द्रष्टा
तुम्हारे भीतर एक चक्राकार गति है, और यदि तुम केवल देखते रहो-
इन व्यक्तित्वों के साथ छेड़-छाड़ मत करो क्योंकि उससे तो ज्यादा गड़बड़ पैदा होगी,
ज्यादा विभ्रम पैदा होंगे। सिर्फ देखो, क्योंकि
इन व्यक्तित्वों को देखते हुए तुम्हें बोध होनेवाला है कि एक देखनेवाला भी है,
जो कि कोई व्यक्तित्व नहीं है, जिसके समक्ष ये
सारे व्यक्तित्व आते और जाते हैं।
और यह कोई दूसरा व्यक्तित्व नहीं है, क्योंकि एक व्यक्तित्व
दूसरे व्यक्तित्व को नहीं देख सकता। यह बड़ी ही सारभूत और रोचक बात है- कि एक
व्यक्तित्व दूसरे व्यक्तित्व को देख नहीं सकता, क्योंकि इन
व्यक्तित्वों में कोई आत्मा नहीं होती।
ये तुम्हारे वस्त्रों जैसे हैं। तुम अपने वस्त्र बदलते जा सकते
हो, लेकिन
तुम्हारे वस्त्र यह नहीं जान सकते कि वे बदल दिये गये हैं, कि
अब एक दूसरे वस्त्र का उपयोग किया जा रहा है। तुम वस्त्र नहीं हो, इसलिये तुम उन्हें बदल सकते हो। तुम व्यक्तित्व नहीं हो- इसलिए तुम इन
असंख्य व्यक्तित्वों के प्रति सजग हो सकते हो।
लेकिन इससे एक बात और बहुत साफ हो जाती है कि कुछ है जो तुम्हारे
आसपास चलने वाले व्यक्तित्वों के इस सारे खेल को देखता रहता है।
और यही तुम हो।
तो इन व्यक्तित्वों को देखो, लेकिन याद रहे कि तुम्हारा देखना ही, तुम्हारी वास्तविकता है। यदि तुम इन व्यक्तित्वों को देखते रह सको- तो ये
व्यक्तित्व विदा होने लगेंगे; वे जीवित नहीं रह सकते। जीवित
रहने के लिये उनको तादात्म्य की जरूरत है। यदि तुम क्रोध में हो तो उसकी जरूरत है
कि तुम देखना भूलो और क्रोध के साथ तादात्म्य में होओ अन्यथा क्रोध का कोई जीवन
नहीं है; वह पहले से ही मृत है, मर रहा
है, विलीन हो रहा है।
तो अपने द्रष्टा में ज्यादा से ज्यादा एकाग्र रहो, और ये सारे व्यक्तित्व खो
जायेंगे। और जब कोई व्यक्तित्व नहीं बचता, तब तुम्हारी
वास्तविकता- मालिक- घर आ गया है।
तब तुम ईमानदारी से,
प्रामाणिकता से व्यवहार करते हो। तब जो कुछ भी तुम करते हो, समग्रता से, पूर्णता से करते हो- कभी पछताते नहीं
हो। तुम हमेशा आनंदित भावदशा में होते हो।
हमारी बहुत-सी समस्याएँ- शायद अधिकांश समस्याएँ- इसलिये हैं
क्योंकि हमने उन्हें आमने-सामने करके नहीं देखा है, उनका सामना नहीं किया है। और उनकी ओर न देखना
उन्हें ऊर्जा दे रहा है। उनसे भयभीत रहना उन्हें ऊर्जा दे रहा है, हमेशा उनसे बचने की कोशिश उन्हें ऊर्जा दे रही है- क्योंकि तुम उन्हें
स्वीकार कर रहे हो। तुम्हारा स्वीकार ही उनका अस्तित्त्व है। तुम्हारे स्वीकार के
अतिरिक्त उनका कोई अस्तित्त्व नहीं है।
ऊर्जा का स्रोत तुम्हारे पास है। जो कुछ भी तुम्हारे जीवन में घटता
है उसको तुम्हारी ऊर्जा की जरूरत होती है। यदि तुम ऊर्जा के स्रोत को काट दो और-
दूसरे शब्दों में उसे ही मैं तादात्म्य कहता हूं- यदि तुम किसी भी चीज से
तादात्म्य न जोड़ो, तो वह तत्क्षण मृत हो जाती है, उसके पास अपनी कोई
ऊर्जा नहीं है।
और अ-तादात्म्य द्रष्टा होने का ही दूसरा पहलू है।
आदतें आसान है,
होश कठिन है- लेकिन केवल शुरु में ही।
जीवन के विभिन्न आयाम
ओशो
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