मैंने सुना है, एक आदमी ने शराब पी ली थी और वह रात बेहोश हो गया। आदत
के वश अपने घर चला आया, पैर चले आए घर। लेकिन बेहोश था, घर पहचान नहीं सका।
सीढ़ियों पर खड़े होकर पास—पड़ोस के लोगों से पूछने लगा कि मैं अपना घर भूल
गया हूं मेरा घर कहां है मुझे बता दो! लोगों ने कहा, यही तुम्हारा घर है।
उसने कहा, मुझे भरमाओ मत, मुझे मेरे घर जाना है, मेरी की मां मेरा रास्ता
देखती होगी। और कोई कृपा करो, मुझे मेरे घर पहुंचा दो।
शोरगुल सुन कर उसकी की मां भी उठ आई, दरवाजा खोल कर उसने देखा कि उसका
बेटा चिल्ला रहा है, रो रहा है कि मुझे मेरे घर पहुंचा दो। उसने उसके सिर
पर हाथ रखा और कहा, बेटा, यह तेरा घर है और मैं तेरी मां हूं।
उसने कहा, हे बुढ़िया, तेरे ही जैसी मेरी बूढ़ी मां है, वह मेरा रास्ता
देखती होगी। मुझे मेरे घर का रास्ता बता दो। पर ये सब लोग हंस रहे हैं, कोई
मुझे घर का रास्ता नहीं बताता। मैं कहां जाऊं? मैं कैसे अपने घर को पाऊं?
तब एक आदमी ने, जो उसके साथ ही शराब पीकर लौटा था, उसने कहा, ठहर, मैं बैलगाड़ी ले आता हूं तुझे तेरे घर पहुंचा देता हूं।
तो उस भीड़ में से लोगों ने कहा कि पागल, इसकी बैलगाड़ी में मत बैठ जाना,
नहीं तो घर से और दूर निकल जाएगा; क्योंकि तू घर पर ही खड़ा हुआ है। तुझे
कहीं भी नहीं जाना है, सिर्फ तुझे जागना है। तुझे कहीं जाना नहीं है, सिर्फ
जागना है, सिर्फ होश में आना है और तुझे पता चल जाएगा कि तू अपने घर पर
खड़ा है। और किसी की बैलगाड़ी में मत बैठ जाना, नहीं तो जितना, जितना खोज पर
जाएगा उतना ही दूर निकल जाएगा।
हम सब वहीं खड़े हुए हैं, जहां से हमें कहीं भी जाना नहीं है।
लेकिन हमारा चित्त एक ही तरह की भाषा समझता है जाने की, दौड़ने की, लालच
की, पाने की, खोज की, उपलब्धि की। तो वह जो हमारा चित्त एक तरह की भाषा
समझता है… अब आप पूछते हैं कि गृहस्थ… असल में अगर ठीक से समझें, तो जो
पाने की, खोजने की, पहुंचने की, दौड़ने की, लोभ की भाषा समझता है, ऐसे चित्त
का नाम ही गृहस्थ है। और गृहस्थ का कोई मतलब नहीं होता। जिसको इस तरह की
लैंग्वेज भर समझ में आती है वह गृहस्थ है। और जो पाने की, दौड़ने की, खोजने
की, पहुंचने की भाषा छोड़ देता है, पहुंचा ही हुआ हूं पाया ही हुआ हूं हुआ
ही हुआ हूं ऐसी भाषा समझने लगता है, उसका नाम संन्यस्त है। और अगर संन्यासी
भी पहुंचने और दौड़ने की बात कर रहा हो तो गृहस्थ है, वह अभी संन्यासी नहीं
है। कपड़े बदल लिए होंगे, यह हो सकता है। लेकिन अगर वह यह कह रहा है कि
पाना है परमात्मा को, तो अभी वह गृहस्थ है। अभी वह संन्यासी हुआ ही नहीं,
अभी उसने भाषा ही नहीं जानी कि संन्यासी होने का मतलब क्या है।
संन्यासी होने का मतलब यह है कि पाने को कुछ है ही नहीं। जो भी पाने को
है वह पाया ही हुआ है। लोभ करने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि जिसका हम लोभ
करें वह हमारे भीतर ही बैठा हुआ है। और यदि हमने लोभ किया तो हम भटक
जाएंगे भीतर से, कहीं और चले जाएंगे। और वही लोभ और लालच हमें भटका रहा है।
अक्सर तो यही होता है कि एक आदमी गृहस्थ है और संन्यासी हो जाता है, तो
लोभ के कारण ही। वह कहता है, गृहस्थी में नहीं मिलता आनंद, संन्यस्त होने
से आनंद मिल जाएगा। वह कहता है, गृहस्थी में नहीं मिलता परमात्मा, और मैं
परमात्मा को पाए बिना कैसे रह सकता हूं तो मैं संन्यासी होता हूं।
लेकिन अभी उसकी जो भाषा है वह गृहस्थ की है। अभी उसे पता भी नहीं चला कि
वह गृहस्थ का जो फ्रेमवर्क है गृहस्थ के दिमाग का, उसके बाहर नहीं हो रहा
है। वह उसी के भीतर चल रहा है। अब वह नये उपाय में लग जाएगा पूजा करेगा,
प्रार्थना करेगा, जप करेगा, तप करेगा। ये सब प्रयत्न होंगे पाने के। लेकिन
जो पाया ही हुआ है, उसे पाने का कोई भी प्रयत्न उचित नहीं है, अनुचित है।
उसे जानना है, पाना नहीं है। इस फर्क को समझ लेना चाहिए कि उसे सिर्फ जानना
है, पाना नहीं है। वह पाया हुआ है। ऐसे ही जैसे हमारी जेब में कुछ चीज पड़ी
है और हम भूल गए हैं। और अब उसे खोजते फिर रहे हैं, खोजते फिर रहे हैं, और
वह नहीं मिलती, क्योंकि वह जेब में पड़ा है।
जीवन रहस्य
ओशो
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