कभी आपने खयाल किया, अगर एक कमरे में दस पुरुष बैठकर बात कर रहे हों और
एक स्त्री आ जाए, तो उनके बोलने की सबकी टोन फौरन बदल जाती है; वही नहीं रह
जाती। बड़े मृदुभाषी, मधुर, शिष्ट, सज्जन हो जाते हैं! क्या हो गया? क्या,
हो क्या गया एक स्त्री के प्रवेश से? उनको भी खयाल नहीं आएगा कि यह अभ्यास
चल रहा है। यह अभ्यास है, बहुत अनकांशस हो गया, अचेतन हो गया। इतना कर डाला
है कि अब हमें पता ही नहीं चलता।
इसकी हालत करीब-करीब ऐसी हो गई है, जैसे साइकिल पर आदमी चलता है, तो
उसको घर की तरफ मोड़ना नहीं पड़ता हैंडिल, मुड़ जाता है। चलता रहता है, साइकिल
चलती रहती है, जहां-जहां से मुड़ना है, हैंडिल मुड़ता रहता है। अपने घर के
सामने आकर गाड़ी खड़ी हो जाती है। उसे सोचना नहीं पड़ता कि अब बाएं मुड़ें कि
अब दाएं। अभ्यास इतना गहरा है कि अचेतन हो गया है। साइकिल होश से नहीं
चलानी पड़ती। बिलकुल मजे से वह गाना गाते, पच्चीस बातें सोचते, दफ्तर का
हिसाब लगाते…चलता रहता है। पैर पैडिल मारते रहते हैं, हाथ साइकिल मोड़ता
रहता है। यह बिलकुल अचेतन हो गया है। इतना अभ्यास हो गया कि अचेतन हो गया।
कामवासना का अभ्यास इतना अचेतन है कि हमें पता ही नहीं होता कि जब हम
कपड़ा पहनते हैं, तब भी कामवासना का अभ्यास चल रहा है। जब आप आईने के सामने
खड़े होकर कपड़े पहनकर देखते हैं, तो सच में आप यह देखते हैं कि आपको आप कैसे
लग रहे हैं? या आप यह देखते हैं कि दूसरों को आप कैसे लगेंगे? और अगर
दूसरों का थोड़ा खयाल करेंगे, तो अगर पुरुष देख रहा है आईने में, तो दूसरे
हमेशा स्त्रियां होंगी। अगर स्त्रियां देख रही हैं, तो दोनों हो सकते हैं,
पुरुष और स्त्रियां भी। क्योंकि स्त्रियों की कामवासनार् ईष्या से इतनी
संयुक्त हो गई है, जिसका कोई हिसाब नहीं है। पुरुष होंगे कि कोई देखकर
प्रसन्न हो जाए, इसलिए; और स्त्रियों की याद आएगी कि कोई स्त्री जल जाए,
राख हो जाए, इसलिए। मगर दोनों कामवासना के ही रूप हैं। दोनों के भीतर गहरे
में तो वासना ही चल रही है।
यह अभ्यास चौबीस घंटे चल रहा है। तो फिर वैराग्य का जो पक्षी आता है
आपके पास, कोई जगह नहीं पाता जहां बैठ सके; व्यर्थ हो जाता है। आपने जो
मकान बनाया है, वह वासना के पक्षी के लिए बनाया है। इसलिए सब तरफ से उसको
निमंत्रण है, निवास के लिए मौका है।
गीता दर्शन
ओशो
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