डा. जैक्सन की खोज मूल्यवान है। इसलिए नहीं कि उन्होंने आत्मा
तौल ली है, जिसे उन्होंने तौला है, उसे वे आत्मा समझ रहे हैं। लेकिन उनकी
तौल मूल्यवान है।
आदमी सैकड़ों वर्षों से कोशिश करता रहा है कि जब मृत्यु घटित होती है, तो
शरीर से कोई चीज बाहर जाती है या नहीं जाती है? और बहुत प्रयोग किए गए
हैं।
इजिप्त में तीन हजार साल पहले भी आदमी को इजिप्त के एक फैरोह ने कांच की
एक पेटी में बंद करके रखा मरते वक्त। क्योंकि अगर आत्मा जैसी कोई चीज बाहर
जाती होगी, तो पेटी टूट जाएगी, कांच फूट जाएगा, कोई चीज बाहर निकलेगी।
लेकिन कोई चीज बाहर नहीं निकली।
स्वभावत:, दो ही अर्थ होते हैं। या तो यह अर्थ होता है कि आत्मा को बाहर
निकलने के लिए कांच की कोई बाधा नहीं है। जैसे कि सूरज की किरण निकल जाती
है कांच के बाहर, और कांच नहीं टूटता। या यह अर्थ होता है। या तो यह अर्थ
होता है कि कोई चीज बाहर नहीं निकली।
फैरोह ने तो यही समझा कि कोई चीज बाहर नहीं निकली। क्योंकि कोई चीज बाहर निकलती, तो कांच टूटता। समझा कि कोई आत्मा नहीं है।
फिर और भी बहुत प्रयोग हुए हैं। रूस में भी बहुत प्रयोग हुए कि आदमी
मरता है, तो उसके शरीर में कोई भी अंतर पड़ता हो, तो हम सोचें कि कोई चीज
बाहर गई। लेकिन अब तक कोई अंतर का अनुभव नहीं हो सका था।
जैक्सन की खोज मूल्यवान है कि उसने इतना तो कम से कम सिद्ध किया कि कुछ
अंतर पड़ता है, इक्कीस ग्राम का सही। अंतर पड़ता है, इतनी बात तय हुई कि आदमी
जब मरता है, तो अंतर पड़ता है। मृत्यु और जीवन के बीच थोड़ा फासला है,
इक्कीस ग्राम का सही! अंतर पड़ जाता है।
अब यह जो इक्कीस ग्राम का अंतर पड़ता है, स्वभावत: जैक्सन वैज्ञानिक है,
वह सोचता है, यही आत्मा का वजन होना चाहिए। क्योंकि वैज्ञानिक सोच ही नहीं
सकता कि बिना वजन के भी कोई चीज हो सकती है। वजन पदार्थवादी मन की पकड है।
बिना वजन के कोई चीज कैसे हो सकती है!
वैज्ञानिक तो सूरज की किरणों में भी वजन खोज लिए हैं। वजन है, बहुत थोड़ा
है। पांच वर्गमील के घेरे में जितनी सूरज की किरणें पड़ती हैं, उनमें कोई
एक छटांक वजन होता है। इसलिए एक किरण आपके ऊपर पड़ती है, तो आपको वजन नहीं
मालूम पड़ता। क्योंकि पांच वर्गमील में जितनी किरणें पड़े दोपहर में, उनमें
एक छटांक वजन होता है।
लेकिन वैज्ञानिक तो तौलकर चलता है। मेजरेबल, कुछ भी हो जो तौला जा सके,
तो ही उसकी समझ गहरी होती है। एक बात अच्छी है कि जैक्सन ने पहली दफा
मनुष्य के इतिहास में तौल के आधार पर भी तय किया कि जीवन और मृत्यु में
थोड़ा फर्क है। कोई चीज कम हो जाती है। स्वभावत:, वह सोचता है कि आत्मा
इक्कीस ग्राम वजन की होनी चाहिए।
अगर आत्मा का कोई वजन है, तो वह आत्मा ही नहीं रह जाती, पहली बात।
क्योंकि आत्मा और पदार्थ में हम इतना ही फर्क करते हैं कि जो मापा जा सके,
वह पदार्थ है।
अंग्रेजी में शब्द है मैटर, वह मेजर से ही बना हुआ शब्द है, जो तौला जा
सके, मापा जा सके। हम माया कहते हैं, माया शब्द भी माप से ही बना हुआ शब्द
है, जो तौली जा सके, नापी जा सके, मेजरेबल, माप्य हो।
तो पदार्थ हम कहते हैं उसे, जो मापा जा सके, तौला जा सके। और आत्मा हम
उसे कहते हैं, जो न तौली जा सके, न मापी जा सके। अगर आत्मा भी नापी जा सकती
है, तो वह भी पदार्थ का एक रूप है। और अगर किसी दिन वितान ने यह खोज लिया
कि पदार्थ भी मापा नहीं जा सकता, तो हमें कहना पड़ेगा कि वह भी आत्मा का
विस्तार है।
यह जो इक्कीस ग्राम की कमी हुई है, यह आत्मा की कमी नहीं है, प्राणवायु
की कमी है। आदमी जैसे ही मरता है, उसके शरीर के भीतर जितनी प्राणवायु थी,
वह बाहर हो जाती है। और आपके भीतर काफी प्राणवायु की जरूरत है, जिसके बिना
आप जी नहीं सकते। आक्सीजन की जरूरत है भीतर, जो प्रतिपल जलती है और आपको जीवित रखती है।
सब जीवन एक तरह की जलन, एक तरह की आग है। सब जीवन आक्सीजन का जलना है।
चाहे दीया जलता हो, तो भी आक्सीजन जलती है; और चाहे आप जीते हों, तो भी
आक्सीजन जलती है। तो एक तूफान आ जाए और दीया जल रहा हो, तो आप तूफान से
बचाने के लिए एक बर्तन दीए पर ढांक दें। तो हो सकता है तूफान से दीया न
बुझता, लेकिन आपके बर्तन ढांकने से बुझ जाएगा। क्योंकि बर्तन ढांकते ही
उसके भीतर जितनी आक्सीजन है, उतनी देर जल पाएगा, आक्सीजन के खत्म होते ही
बुझ जाएगा। आदमी भी एक दीया है। आक्सीजन भीतर प्रतिपल जल रही है। आपका पूरा
शरीर एक फैक्टरी है, जो आक्सीजन को जलाने का काम कर रहा है, जिससे आप जी
रहे हैं।
तो जैसे ही आदमी मरता है, भीतर की सारी प्राणवायु व्यर्थ हो जाती है,
बाहर हो जाती है। उसको जो पकड़ने वाला भीतर मौजूद था, वह हट जाता है, वह छूट
जाती है। उस प्राणवायु का वजन इक्कीस ग्राम है।
लेकिन विज्ञान को वक्त लगेगा अभी कि प्राणवायु का वजन नापकर वह तय करे।
और अगर जैक्सन को पता चल जाए कि यह प्राणवायु का नाप है, तो सिद्ध हो गया
कि आत्मा नहीं है, प्राणवायु ही निकल जाती है।
इससे कुछ सिद्ध नहीं होता। क्योंकि आत्मा को वैज्ञानिक कभी भी न पकड़
पाएंगे। और जिस दिन पकड़ लेंगे, उस दिन आप समझिए कि आत्मा नहीं है।
इसलिए विज्ञान से आशा मत रखिए कि वह कभी आत्मा को पकड़ लेगा और वैज्ञानिक
रूप से सिद्ध हो जाएगा कि आत्मा है। जिस दिन सिद्ध हो जाएगा, उस दिन आप
समझना कि महावीर, बुद्ध, कृष्ण सब गलत थे। जिस दिन वितान कह देगा आत्मा
है, उस दिन समझना कि आपके सब अनुभवी नासमझ थे, भूल में पड़ गए थे। क्योंकि
वितान के पकड़ने का ढंग ऐसा है कि वह सिर्फ पदार्थ को ही पकड़ सकता है। वह
वितान की जो पकड़ने की व्यवस्था है, वह जो मेथडॉलाजी है, उसकी जो विधि है,
वह पदार्थ को ही पकड़ सकती है, वह आत्मा को नहीं पकड़ सकती।
पदार्थ वह है, जिसे हम विषय की तरह, ऑब्जेक्ट की तरह देख सकते हैं। और
आत्मा वह है, जो देखती है। विज्ञान देखने वाले को कभी नहीं पकड़ सकता; जो भी
पकड़ेगा, वह दृश्य होगा। जो भी पकड़ में आ जाएगा, वह देखने वाला नहीं है, वह
जो दिखाई पड़ रहा है, वही है। द्रष्टा विज्ञान की पकड़ में नहीं आएगा। और
धर्म और विज्ञान का यही फासला है।
अगर विज्ञान आत्मा को पकड़ ले, तो धर्म की फिर कोई भी जरूरत नहीं है। और
अगर धर्म पदार्थ को पकड़ ले, तो विज्ञान की फिर कोई भी जरूरत नहीं है।
हालांकि दोनों तरह के मानने वाले पागल हैं। कुछ पागल हैं, जो समझते हैं,
धर्म काफी है, विज्ञान की कोई जरूरत नहीं है। वे उतने ही गलत हैं, जितने कि
कुछ वैज्ञानिक समझते हैं कि वितान काफी है और धर्म की कोई जरूरत नहीं है।
विज्ञान पदार्थ की पकड़ है, पदार्थ की खोज है। धर्म आत्मा की खोज है,
अपदार्थ की, नॉनमैटर की खोज है। ये दोनों खोज अलग हैं। इन दोनों खोज के
आयाम अलग हैं। इन दोनों खोज की विधियां अलग हैं।
अगर विज्ञान की खोज करनी है, तो प्रयोगशाला में जाओ। और अगर धर्म की खोज
करनी है, तो अपने भीतर जाओ। अगर विज्ञान की खोज करनी है, तो पदार्थ के साथ
कुछ करो। अगर धर्म की खोज करनी है, तो अपने चैतन्य के साथ कुछ करो।
तो इस चैतन्य को न तो टेस्टटयूब में रखा जा सकता है, न तराजू पर तौला
जा सकता है, न काटापीटा जा सकता है सर्जन की टेबल पर, कोई उपाय नहीं है।
इसका तो एक ही उपाय है कि अगर आप अपने को सब तरफ से शांत करके भीतर खड़े हो
जाएं जागकर, तो इसका अनुभव कर सकते हैं। यह अनुभव निजी और वैयक्तिक है।
गीता दर्शन
ओशो
No comments:
Post a Comment