होशिन के गुरु के संबंध में एक घटना है। इस आश्रम में काफी भिक्षु थे।
नियम तो यही है बौद्ध भिक्षुओं का कि सूरज ढलने के पहले एक बार वे भोजन कर
लें। लेकिन इस गुरु के संबंध में एक बड़ी अनूठी बात थी, कि वह सदा सूरज ढल
जाने के बाद ही भोजन करता। और नियम तो यह है कि बौद्ध भिक्षु सदा सामूहिक
रूप से भोजन करें ताकि सब एक दूसरे को देख सकें कि कौन क्या खा-पी रहा है?
भोजन छिपाकर न किया जाए, एकांत में न किया जाए। लेकिन इस होशिन के गुरु की
एक नियमित आदत थी कि रात अपने झोपड़े के सब दरवाजे बंद करके ही वह भोजन करता
था, और रातभर करता था।
यह खबर सम्राट तक पहुंच गयी। सम्राट भी भक्त था और उसने कहा कि यह अनाचार हो रहा है।
हम अंधों की आंखें क्षुद्र चीजों को ही देख पाती हैं। इस गुरु की ज्योति
दिखाई नहीं पड़ती। इस गुरु की महिमा दिखाई नहीं पड़ती। इस गुरु में जो
बुद्धत्व जन्मा है वह दिखाई नहीं पड़ता। रात भोजन कर रहा है, यह हमें तत्काल
दिखाई पड़ता है। और कमरा बंद क्यों करता है?
सम्राट को भी संदेह हुआ। सम्राट भी शिष्य था। उसने कहा, इसका तो पता
लगाना होगा। यह तो भ्रष्टाचार हो रहा है। और रात जरूर छिपकर खा रहा है तो
कुछ मिष्ठान्न…या पता नहीं, जो कि भिक्षु के लिए वर्जित है; अन्यथा छिपने
की क्या जरूरत है? द्वार बंद करने का सवाल ही क्या है? भिक्षु के
भिक्षापात्र को छिपाने का कोई प्रयोजन नहीं है।
हम छिपाते तभी हैं, जब हम कुछ गलत करते हैं। स्वभावतः हम सबके जीवन का
नियम यही है। हम गुप्त उसी को रखते हैं, जो गलत है। प्रगट हम उसको करते हैं
जो ठीक है। ठीक के लिए छिपाना नहीं पड़ रहा है, गलत के लिए छिपाना पड़ रहा
है। लेकिन गुरुओं के व्यवहार का हमें कुछ भी पता नहीं। यह हमारा व्यवहार
है, अज्ञानी का व्यवहार है कि गलत को छिपाओ, ठीक को प्रगट करो। ना भी हो
ठीक प्रगट करने को, तो भी ऐसा प्रगट करो कि ठीक तुम्हारे पास है; और गलत को
दबाओ और छिपाओ। किसी को पता न चलने दो, गुप्त रखो। तो हम सबकी जिंदगी में
बड़े अध्याय गुप्त हैं। हमारी जीवन की किताब कोई खुली किताब नहीं हो सकती।
पर हम सोचते हैं कि गुरु की किताब तो खुली किताब होगी।
सम्राट ने कहा, पता लगाना पड़ेगा। रात सम्राट और उसका वजीर इस गुरु के
झोपड़े के पीछे छिप गये नग्न तलवारें लेकर; क्योंकि यह सवाल धर्म को बचाने
का है।
कभी-कभी अज्ञानी भी धर्म को बचाने की कोशिश में लग जाते हैं। उनको जरा
हमेशा ही खतरा रहता है कि धर्म खतरे में है। जिनके पास धर्म बिलकुल नहीं
है, उन्हें धर्म को बचाने की बड़ी चिंता होती है। और इन मूढ़ों ने धर्म को
बुरी तरह नष्ट किया है।
वह छिप गया तलवारें लिये कि आज कुछ भी फैसला कर लेना है। सांझ हुई, गुरु
आया। अपने वस्त्र में, चीवर में छिपाकर भोजन लाया। द्वार बंद किये। जहां
यह छिपे थे, इन्होंने दीवार में एक छेद करवा रखा था ताकि वहां से देख सकें,
द्वार बंद किये। बड़े हैरान हुए कि गुरु भी अदभुत है। वह उनकी तरफ पीठ करके
बैठ गया, जहां छेद था और उसने बिलकुल छिपाकर अपने पात्र से भोजन करना शुरू
कर दिया। इन्होंने कहा, यह तो बर्दाश्त के बाहर है। यह आदमी तो बहुत ही
चालाक है। इनको यह खयाल में न आया, यह हमारी चालाकी को अपनी निर्दोषता के
कारण पकड़ पा रहा है, किसी बड़ी चालाकी के कारण नहीं।
छलांग लगाकर खिड़की को तोड़कर दोनों अंदर पहुंच गये। गुरु ने अपना चीवर
फिर से पात्र पर डाल दिया। सम्राट ने कहा कि हम बिना देखे न लौटेंगे कि तुम
क्या खा रहे हो? गुरु ने कहा कि नहीं, आपके देखने योग्य नहीं है। तब तो
सम्राट और संदिग्ध हो गया। उसने कहा, हाथ अलग करो। अब हम शिष्य की मर्यादा
भी न मानेंगे। गुरु ने कहा, जैसी तुम्हारी मर्जी! लेकिन सम्राट की आंखें
ऐसी साधरण चीजों पर पड़ें यह योग्य नहीं।
उसने चीवर हटा लिया; भिक्षापात्र में न तो कोई मिष्ठान्न थे, न कोई
बहुमूल्य स्वादिष्ट पदार्थ थे, भिक्षा-पात्र में सब्जियों की जो डंडियां और
गलत सड़े-गले पत्ते, जो कि आश्रम फेंक देता था, वे ही उबाले हुए थे।
सम्राट मुश्किल में पड़ गया। रात तो सर्द थी लेकिन माथे पर पसीना आ गया। उसने कहा, इसको छिपाकर खाने की क्या जरूरत है?
गुरु ने कहा, क्या तुम सोचते हो गलत को ही छिपाया जाता है? सही को भी
छिपाना पड़ता है। तुम गलत को छिपाते हो, हम सही को छिपाते हैं; यह हममें और
तुममें फर्क है। तुम गलत को गुप्त रखते हो, हम सही को गुप्त रखते हैं। तुम
सही को प्रगट करते हो क्योंकि सही के प्रगट करने से अहंकार भरता है और गलत
को प्रगट करने से अहंकार टूटता है। हम गलत को प्रगट करते हैं और सही को
छिपाते हैं। हम तुमसे उलटे हैं। हम शीर्षासन कर रहे हैं।
‘यह घास-पात खाने के लिए छिपाने की क्या जरूरत थी?’
वह गुरु हंसने लगा और उसने कहा कि मैं जानता था, आज नहीं कल तुम आओगे
क्योंकि तुम सबकी नजरें क्षुद्र पर हैं। विराट घटा है, वह तुम्हें दिखाई
नहीं पड़ता। लेकिन बस, यह मेरी आखिरी सांझ है। इस आश्रम को मैं छोड़ रहा हूं।
अब तुम संभालो और जो मर्यादा बनाते हैं, वे संभालें। तुम्हारी अपेक्षाएं
मैं पूरी नहीं कर सकता। और जब तक मैं तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी करूंगा, मैं
तुम्हें कैसे बदलूंगा?
सिर्फ वही गुरु तुम्हें बदल सकता है, जो तुम्हारी अपेक्षाओं के अनुकूल
नहीं चलता। जो तुम्हारे पीछे चलता है, वह तुम्हें नहीं बदल सकता। और बड़ा
कठिन है उस आदमी के पीछे चलना, जो तुम्हारे पीछे न चलता हो; अति दूभर है।
रास्ता अत्यंत कंटकाकीर्ण है फिर। शिष्य के मन में संदेह हो–संदेह होगा।
इतनी श्रद्धा भर काफी है कि वह बिना अपेक्षा किए गुरु के पीछे चल पाये।
गुरु के व्यवहार से गुरु को मत नापना; क्योंकि हो सकता है, व्यवहार तो सिर्फ तुम्हारे लिए आयोजित किया गया हो।
बिन बाती बिन तेल
ओशो
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