अगर किसी व्यक्ति की जीवन-चेतना में तुम गौर से देखने की कला समझ जाओ, तो तुम देख सकते हो कि पिता और मां--कैसे अलग-अलग रंगों की दो धाराएं बह रही हैं। स्त्री है उसके भीतर, पुरुष है उसके भीतर। और वह जो भीतर छिपी स्त्री हैं पुरुष के भीतर, वही तो पुरुष का आकर्षण है बाहर की स्त्री में। भीतर का तो उसे पता नहीं है। एक पुकार है, एक प्यास है, एक तड़फन है। और भीतर का उसे पता नहीं है, भीतर जाने का भी उसे कुछ पता नहीं है, भीतर जैसी कोई चीज है, इसका भी उसे पता नहीं है। वह अपने घर के पोर्च के ही पास खड़ा जी रहा है। उसे घर भीतर क्या है, उसका पता भी नहीं है। द्वार इतने दिन से बंद हैं, कि दीवाल जैसा लगता है। पोर्च को ही घर समझ लिया। वहीं जीता है। और नजर उसकी सड़क पर लगी है। क्योंकि आंख बाहर ही देख रही है। भीतर देखने को तुम्हें कुछ अंदाज ही नहीं है।
वह भीतर देखना ही तो ध्यान है। वह महुआ तुम्हें अभी मिला नहीं।
तो भीतर एक नारी है पुरुष के; वही आकर्षण है बाहर की नारी में। और भीतर एक पुरुष है नारी में, वही आकर्षण है बाहर के पुरुष में। इसलिए बड़ी अड़चन भी है। आकर्षण भी; अड़चन भी, उपद्रव भी।
क्योंकि जब तक तुम्हें तुम्हारी भीतर की नारी जैसी नारी बाहर न मिल जाए, तब तक तृप्ति न होगी। क्योंकि उसे तुम खोज रहे हो। और यह असंभव है। करीब-करीब असंभव है। अगर कुछ प्रतिशत भी बाहर की नारी मिल जाए तो भी तृप्ति मालूम होगी, लेकिन पूरा मिल जाना तो असंभव है। इसीलिए सुंदरतम जोड़े भी, पूर्णतम जोड़े भी अपूर्ण रह जाते हैं। कुछ कमी रह जाती है।
जिसकी खोज है, वह भीतर छिपी है। उसे तुम बाहर खोज रहे हो। थोड़ा-बहुत तालमेल बैठ जाए तो काफी है। इसलिए सौ में निन्यानबे विवाह असफल होते हैं। वे सफल हो ही नहीं सकते। उनकी बुनियाद में ही सफलता संभव नहीं है।
कैसे खोजोगे उस नारी को?
तुम एक प्रतिमा लिए हो भीतर, उसकी ही तलाश है। किसी स्त्री में वह झलक मिल जाती है किसी दिन; तुम प्रेम में पड़ जाते हो। जिसको तुम प्रेम में पड़ना कहते हो वह कुछ और नहीं है, तुम्हारी भीतर की नारी की झलक तुमने किसी स्त्री में देख ली है। कोई स्त्री तुम्हारे लिए दर्पण बन गई और तुमने अपनी भीतर की नारी का थोड़ा सा प्रतिबिंब उसमें पा लिया, थोड़ी छवि पकड़ ली। तुम प्रेम में पड़ गए।
अब तुम पागल हो गए कि जब तक यह स्त्री नहीं मिलेगी, शांति नहीं। यह तुम्हें मिल भी जाएगी; लेकिन थोड़े ही दिन शांति और सुख रहेगा। क्योंकि जैसे-जैसे तुम इसे ज्यादा पहचानोगे, वैसे-वैसे पाओगे, तुम्हारी भीतर की नारी से मेल खाता नहीं। फर्क है। रोज-रोज फर्क बड़ा होता जाएगा। जैसी पहचान बढ़ेगी, वैसे-वैसे फर्क बड़ा होता जाएगा। दूर से लगता था जो, वह पास से आकर ठीक नहीं पाया जाएगा। जितनी निकटता होगी, उतनी दूरी बढ़ जाएगी और इसलिए स्त्री और पुरुष के संबंध बड़े ही दुखद हैं--होंगे ही। कामचलाऊ हो सकते हैं।
तंत्र की यह बड़ी पुरानी खोज है। जुंग ने तो इस सदी में पश्चिम में यह कहा; लेकिन तंत्र की यह सदियों पुरानी खोज है; हजारों वर्ष पुरानी खोज है। हमने शिव की मूर्ति बनाई है अर्धनारीश्वर। आधे शिव पुरुष हैं और आधे स्त्री हैं। वह हमारी खोज है। उस मूर्ति में हमने कह दिया मनुष्य का यह सत्य।
और जब तक तुम्हारे भीतर की नारी तुम्हारे भीतर के पुरुष से मिल न जाए, आलिंगनबद्ध न हो जाए--उसको तंत्र कहता है, "युगनद्ध"; जब तुम अपने भीतर अपने द्वैत को मिला न लो, भीतर संभोग घटित न हो जाए, तब तक तुम अतृप्त रहोगे।
कहै कबीर दीवाना
ओशो
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