धर्म कृष्ण ,
सब तुम पर निर्भर है। मैं तो अपनी तरफ से पूरी चेष्टा कर रहा हूं। जितनी तुम्हारी ठोंक-पीट कर सकता हूं, करता हूं। तुम्हारे सिर पर जितने डंडे बरसा सकता हूं, बरसाता हूं। डंडे तुम्हें नहीं समझ में आते तो हथौड़े से भी चोट करता हूं। जैसा मरीज देखता हूं: सुनार से मान गये तो सुनार और लुहार से माने तो लुहार हो जाता हूं। हथौड़ी तो हथौड़ी, हथौड़ा तो हथौड़ा-जो भी जरूरत हो। मैं फिर इसकी फिक्र नहीं करता।
लेकिन कुछ ऐसे लोग हैं, जो इस तरह बंद हैं, इस तरह बंद हैं कि उनमें से रंघ्र खोजनी मुष्किल है। उनमें भीतर प्रवेश करना मुश्किल है।
मुल्ला नसरूद्दीन ने डाॅक्टर को फोन किया आधी रात, कि पत्नी को बहुत जोर से पेट में दर्द हो रहा है, लगता है बच्चा पैदा होने का क्षण आ गया, आप इसी वक्त आ जाएं। आधी रात, वर्षा, आंधी! डाॅक्टर बेचारा उठा किसी तरह, गाड़ी स्टार्ट न हो, बमुश्किल धक्का दे-दाकर गाड़ी स्टार्ट हुई, किसी तरह पंहुचा। जाकर अंदर पहुंचा, एक पांच मिनट बाद उसने खिड़की के बाहर मुंह झांका और नसरूद्दीन से कहा: ‘नसरूद्दीन, हथौड़ा है?’
नसरूद्दीन थोड़ा डरा-हथौड़ा! हथौड़ा लाया निकाल कर। एक-दो मिनिट बाद फिर खटर पटर की आवाज अंदर से आती रही। नसरूद्दीन थोड़ा डरा भी कि हथौड़े का क्या कर रहा है यह! आदमी होश में है, नशा वशा तो नहीं किए हुए है? यह डाॅक्टर है कि विटनरी डाॅक्टर है, क्या है मामला? फिर दो मिनिट बाद वह डाॅक्टर बाहर आया और नसरूद्दीन से कहा कि ऐसा करो भाई.....आरी तो नहीं हैं?
नसरूद्दीन फिर भी कुछ नहीं बोला, आरी लेकर दे दी। वह तो दो मिनिट बाद फिर डाॅक्टर बाहर आ गया और कहने लगा: ‘एक बड़ी चट्टान हो तो उठा लाओ।’
नसरूद्दीन ने कहा: ‘बहुत हो गया डाॅक्टर साहब! माजंरा क्या है? मेरी पत्नी को तकलीफ क्या है?’
डाॅक्टर ने कहा: ‘तुम्हारी पत्नी से सवाल ही अभी कहां उठती है! अभी मेरी पेटी ही नहीं खूल रही। पहले मेरी पेटी तो खुले, फिर तुम्हारी पत्नी की जांच-परख करूं।’
तो कई की पेटी ऐसी बंद है कि खुलती ही नहीं। हथौड़ा बुलाओ, आरी बुलाओ चट्टान लाओ........अब आखिर में उसने कहा कि चट्टान पटक कर पेटी को तोड़ ही डालो, क्योंकि पत्नी मरी जा रही है, चिल्ला रही है, चीख पुकार मचा रही है। और नसरूद्दीन उसकी चीख-पुकार सुन रहा है, और खटर-पटर की आवाज सुन रहा है। उसको लग रहा है कि डाॅक्टर कर क्या रहा है! हथौड़े मार रहा है मेरी पत्नी को, आरी चला रहा है उसके पेट पर या क्या कर रहा है? यह किस तरह का आपरेषन हो रहा है?
यहां मोहल्ले-पड़ोस के लोंगो को यही डर लगा रहता है, क्योंकि यहां से आवाजें उठती हैं आश्रम से एक-एक तरह की। किसी पर आरी चलायी जा रही हैं, किसी पर हथौड़ा मारा जा रहा है। और यहां सिर्फ पेटी नहीं खुल रही! पहले पेटी तो खुले, फिर आगे कुछ दूसरा काम हो। पेटी तुम ऐसी बंद किए बैठे हो सदियों से, जन्मों-जन्मों से, चौरासी करोड़ योनियों से, पेटी को ऐसा बंद किया, ऐसी जंग खा गयी कि उसको खोलना मुश्किल हो रहा है। और ताले भी इतने पुराने हैं कि अब उनकी चाबी मिलना मुष्किल है।
मेरी तरफ से तो पूरी कोशिश करता हूं, धर्म कृष्ण। तुम कहते हो: ‘क्या हम आपकी बातों को कभी नहीं समझेंगे, या कि वह सौभाग्य का दिन भी कभी आएगा?’
टिके रहे तो आएगा। आना ही पडेगा। आखिर कब तक? पेटी ही है, तोड़ ही लेंगे। खून-पसीना एक कर देंगे, मगर तोडेंगे। रोज सुबह से लग जाता हूं तोड़ने में। सब तरह के उपाय यहां किए हैं तोड़ने के। तुमसे भी उपाय करवाता हूं कि तुम भीतर से तोड़ो, मैं बाहर से तोड़ता हूं।
मगर देर तो लगने वाली है, क्योंकि समझ.....मैं कुछ कहूंगा, तुम कुछ समझोगे। वह स्वभाविक है।
मुल्ला नसरूद्दीन बहुत दिनों से गुलजान के पिता से मिलने की सोच रहा था, मगर हिम्मत न जुटा पाता था। लेकिन जब बहुत दिन हो गये तो एक दिन हिम्मत करके पहुंच ही गया और गुलजान के पिता से बोला कि मैं आपकी बेटी से निकाह करना चाहता हूं। पिता ने मुल्ला नसरूद्दीन को ऊपर से नीचे तक देखा और पूछा: ‘मगर क्या तुम गुलजान की मम्मी से भी मिले या नहीं?’
‘जी’- नसरूद्दीन ने कहा-‘उनसे भी मिला, मगर मुझे गुलजान ही ज्यादा पसंद आयी।’
अब मैं क्या कहूंगा और तुम क्यो समझोगे, इसमें भेद तो होने वाला ही है।
गुलजान भागती हुई आयी और नसरूद्दीन से बोली कि जल्दी से कुछ करो, मुन्ने ने दस पैसे का सिक्का निगल लिया है। मुल्ला नसरूद्दीन बोला: ‘तो निगल भी लेने दो! आखिर दस पैसे में अब आता ही क्या है? निकाल कर भी क्या करेंगे?’
ऐसे ही एक दिन उसने डाॅक्टर को फोन किया कि मेरा लड़का मेरा फाउन्टेन पेन निगल गया है, तो मैं क्या करूं? तो डाॅक्टर ने कहा कि मैं आता हूं।आधा घंटा तो लग ही जाएगा।
तो मुल्ला ने कहा: ‘लेकिन आधा घंटा मै क्या करूं?’
तो डाॅक्टर ने कहा: ‘अब आधा घंटा तुम क्या करो! अरे तब तक पेंसिल से लिखो, और क्या करोगे? बालप्वाइंट हो तो उससे लिखों।’
प्रत्येक व्यक्ति की अपनी समझ तो चलेगी। सुनोगे तुम मुझे, समझोगे तो तुम अपनी।
मुल्ला नसरूद्दीन घबड़ाते हुए बोला: ‘सुनती हो फजलू की अम्मा, भूल से फजलू का कम्बल मेरे हाथ से बालकनी से नीचे गिर गया है!’
पत्नी बोली मुल्ला से: ‘हाय, अब फजलू को सर्दी लग गयी तो?’
मुल्ला बोला: ‘घबड़ाओ नहीं, फजलू को सर्दी कभी नहीं लग सकती। फजलू भी कम्बल में लिपटा हुआ है।’
मुल्ला नसरूद्दीन एक रात अपनी पत्नी से कह रह था: ‘फजलू की मां, जेल में रहने से कई फायदे हैं। एक तो बड़ा फायदा है।’
पत्नी ने कहा: ‘क्या उल्टी सीधी बातें बकतें हो! जेल में रहने से फायदा! क्या फायदा है जी?’
मुल्ला बोला: ‘यही कि वहां कोई कम्बख्त आधी रात को जाकर यह नहीं कहता कि जाकर देख आओ, पिछवाड़े वाला दरवाजा बंद है कि खुल्ला है?’
नसरूद्दीन ने अपने व्याख्यान के बाद लोंगो से कहा कि मित्रो, यदि किसी को कुछ पूछना हो तो कृपया एक कागज पर लिख कर पूछ लें। सिर्फ एक ही कागज आया, जिस पर सिर्फ इतना ही लिखा हुआ था: गधा!
नसरूद्दीन बोला: ‘मित्रो, किसी सज्जन ने अपना नाम तो लिख कर भेज दिया है, लेकिन प्रश्न नहीं पूछा।’
धर्मकृष्ण , मैं कोशिश करता रहूंगा। तुम भी कोशिश करते रहो। बनते-बनते शायद बात बन जाए। और न भी बनी तो हर्ज क्या? अनंत काल पड़ा है, अगले जन्म में किसी और बुद्ध को सताना। तुम यही काम करते रहे पहले से। न मालूम किन किन बुद्धों को तुमने सताया होगा! आखिर बुद्धों को भी तो काम चाहिए न! नहीं तो वे किसको मुक्त करेंगे?
तो कुछ लोग तो टिके ही रहो। लाख समझाऊं, समझ में भी आ जाए, मत समझना। क्योंकि आगेवाले बुद्धों का भी ख्याल रखना आवश्यक है।
उड़ियो पंख पसार
ओशो
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