पुरोहित के लिए, राजनेता के लिए, पंडित के लिए तो कोई आशा नहीं है। अगले जन्म में भी नहीं। पर पुरोहित होना, राजनेता होना, पंडित होना तो तुम छोड़ सकते हो, किसी भी क्षण—और तब आशा है। लेकिन पुरोहित के लिए कोई आशा नहीं, राजनेता के लिए कोई आशा नहीं, पंडित के लिए कोई आशा नहीं। इस बारे में मैं एक दम से सुनिश्चित हूं, अगले जन्म में भी, उससे अगले और अगले जन्म में भी—कभी नहीं। मैंने कभी नहीं सुना कि कोई पुरोहित कभी निर्वाण को पहुंचा हो, कभी नहीं सुना कि किसी राजनेता का कभी परमात्मा से मिलना हुआ हो। कभी नहीं सुना कि कोई पंडित कभी जाग गया हो। ज्ञानी हुआ हो। मनीषी हो गया हो। नहीं यह संभव ही नहीं है।
पंडित ज्ञान में विश्वास करता है, जानने में नहीं। ज्ञान तो बाहर से है, जानना भीतर से है। पंडित जानकारी पर भरोसा करता है। वह जानकारी इकट्ठी करता जाता है। यह एक भारी बोझ बन जाता है। पर भीतर कुछ उगता नहीं। आंतरिक वास्तविकता तो वही की वही बनी रहती है—उतनी ही अज्ञानी जितनी कि पहले थी।
राजनेता शक्ति—सत्ता की तलाश करता है—यह एक अहंकार की यात्रा है। और जो पहुंचते है वे तो विनीत होते है। अहंकारी नहीं। अहंकारी तो कभी नहीं पहुंचते, उनके अहंकार के कारण वे पहुंच ही नहीं सकते। अहंकार तो तुम्हारे और परमात्मा के बीच सबसे बड़ी बाधा है—एक मात्र बाधा। इसलिए राजनेता तो पहुंच ही नहीं सकते।
और पुरोहित...पुरोहित बड़ा चालाक होता है। वह तुम्हारे और परमात्मा के बीच मध्यस्थ बनने की चेष्टा कर रहा होता है। और परमात्मा को जाना उसने जरा भी नहीं होता है। वह सबसे बड़ा धोखेबाज है, सबसे बड़ा कपटी। वह मनुष्य जो सबसे बड़ा पाप कर सकता है, वह वहीं पाप कर रहा है। वह दिखावा कर रहा है कि वह परमात्मा को जानता है। इतना ही नहीं यह भी कि वह परमात्मा को तुम्हें उपलब्ध भी करवा देगा, कि तुम आओ, उसका अनुसरण करो और वह तुम्हें उस परम तक ले चलेगा। और उस परम के बारे में जानता वह कुछ भी नहीं है। वह शायद कर्मकांड़ जानता है, प्रार्थना कैसे की जाए शायद वह यह भी जानता हो, परंतु उस परम को वह नहीं जानता। वह तुम्हें कैसे ले जा सकता है? वह स्वयं अंधा है और जब कोई अंधा अंधे को राह दिखलता है, दोनों कुएं में गिरजाते है।
पुरोहित के लिए तो कोई आशा नहीं, राजनेता के लिए तो कोई आशा नहीं। पंडित के लिए तो कोई भी आशा नहीं है। पर आनंद तेजस, तुम्हारे लिए आशा है, प्रश्न आनंद तेजस का है—तुम्हारे लिए आशा है, हर आशा है।
और यह आयु का प्रश्न नहीं है। तुम छप्पन वर्ष के हो, या छिहत्तर के, या एक सौ छ: के—उससे कुछ अंतर नहीं पड़ता। यह आयु का प्रश्न नहीं है। क्योंकि यह समय का प्रश्न नहीं है। शाश्वतता में प्रवेश करने के लिए कोई क्षण इतना ही उपयुक्त है जितना कि कोई दूसरा क्षण—क्योंकि कोई भी व्यक्ति प्रवेश तो यहां—अभी में ही करता है। इसमें फिर क्या अंतर पड़ता है कि तुम कितने वर्ष के हो? छप्पन के या सोलह के—सोलह वर्ष बाले को भी यहां अभी में प्रवेश करना है, और छप्पन वर्ष वाले को भी अभी में प्रवेश करना है। और न तो तुम्हारे सोलह वर्ष सहायक हैं, और न ही छप्पन वर्ष सहायक है। दोनों के लिए अगल-अलग समस्याएं हैं। जो कि मैं जानता हूं। जब एक सोलह वर्षीय नवयुवक ध्यान में या परमात्मा में प्रवेश करना चाहता है, उसकी समस्या उस व्यक्ति से भिन्न है, जो छप्पन वर्ष का है। क्या है अंतर? परंतु यदि तुम उसे मापो, अंतत: अंतर संख्यात्मक है, गुणात्मक नहीं।
सोलह-वर्षीय व्यक्ति के पास केवल सोलह वर्ष का अतीत है, इस तरह से तो वह उस व्यक्ति से बेहतर अवस्था में है, जो छप्पन वर्ष का है। उस व्यक्ति के पास छप्पन वर्ष का अतीत है। छोड़ने के लिए उसके पास भारी बोझ है। बहुत सी आसक्तियां है—एक छप्पन वर्ष के जीवन के बहुत से अनुभव है, बहुत सारा ज्ञान है। सोलह वर्ष वाले के पास छोड़ने के लिए कुछ अधिक नहीं है। उसके पास छोटा सा भार है, जरा सा सामान—एक छोटा सा सूटकेस एक छोटे से लड़के का सूटकेस। छप्पन वर्ष वाले के पास बहुत सा सामान है। इस तरह से तो छोटे वाला एक बेहतर स्थिति में है।
लेकिन एक दूसरी बात भी है: बड़ी आयु वाले के पास अब भविष्य नहीं बचा है। छप्पन वर्ष वाले के पास, यदि वह पृथ्वी पर सत्तर साल तक जीने वाला है, केवल चौदह वर्ष बचे है। मात्र चौदह वर्ष...उसके पास न के बराबर भविष्य बचा है। न ही अधिक कल्पना, न अधिक सपने। सोलह वर्ष वाले के पास लम्बा जीवन है, उसके लिए लम्बा भविष्य है, बहुत सी कल्पनाए उसका इंतजार कर रही है। कितने सपने उसकी राह में इंतजार कर रहे है। अनंत कल्पनाएं खड़ा उसकी राह तक रही है।
नवयुवक के लिए अतीत छोटा है पर भविष्य बहुत बड़ा; वृद्ध के लिए अतीत बड़ा है, भविष्य छोटा है—कुल मिलाकर बात वही है। यह सत्तर वर्ष की ही बात है; दोनों को ही सत्तर वर्ष ही छोड़ने होते है। नवयुवक के लिए, सोलह वर्ष अतीत में, बाकी वर्ष भविष्य में। भविष्य भी उतना ही छोडा जाना है जितना कि अतीत। इसलिए अंत में, अंतिम हिसाब में, कुछ अंतर नहीं पड़ता।
तुम्हारे लिए हर आशा है, आनंद तेजस। और चूंकि तुमने प्रश्न पूछा है, काम शुरू हो ही चुका है। तुम अपने पुरोहित, राजनेता, पंडित के प्रति सजग हो गए हो—यह एक अच्छी बात है। किसी रोग के विषय में सजग हो जाना, यह जान लेना कि यह क्या है, आधा इलाज हो जाता है।
और तुम संन्यासी हो गए हो, तुमने पहले से ही अज्ञात में एक कदम उठा लिया है। यदि तुम मेरे साथ होने जा रहे हो, तुम्हें अपने पुरोहित से, अपने राजनेता से अपने पंडित से अलविदा कहना होगा। परंतु मुझे विश्वास है कि तुम यह काम कर सकते हो, वर्ना तुमने यह प्रश्न पूछा ही नहीं होता। तुमने यह महसूस किया है कि यह अर्थहीन है। वह सब जो अब तक तुम करते आए हो, वह सब अर्थहीन है—यह तुमने अनुभव किया है। यह भाव बड़ा कीमती है।
इसलिए मैं यह नहीं कहूंगा कि बस धैर्य रखो और अगले जन्म की प्रतीक्षा करो, न। मैं कभी भी स्थगन के पक्ष में नहीं हूं। सब स्थगन खतरनाक होते है, और बड़ी चालबाजी होती है उनमें। यदि तुम कहते हो, ‘इस जन्म में तो मैं स्थगित कर दूंगा अब कुछ नहीं किया जा सकता है! तुम बस दिखाव कर रहे हो। और यह बचने की एक तरकीब है: ‘अब क्या किया जा सकता है? मैं इतना वृद्ध हो गया हूं।’
मृत्यु के समय पर भी, अंतिम क्षण में भी, परिवर्तन घट सकता है। उस समय भी जब कि व्यक्ति मर रहा हो, एक क्षण के लिए वह अपनी आँख खोल सकता है...और परिवर्तन घट सकता है। और इससे पहले कि मौत आए, वह अपने सारे अतीत को छोड़ सकता है। और वह पूरी तरह से ताजा हो कर मर सकता है। तब वह एक नए ही ढंग से मर रहा होता है। वह एक संन्यासी की तरह से मर रहा है। वह गहन ध्यान की अवस्था में मर रहा है। और गहन ध्यान में मरना-मरना नहीं होता। क्योंकि वह उस समय पूरी जागरूकता के साथ मर रहा है, तब कहां मृत्यु है। मृत्यु तो एक बेहोशी का नाम है।
तंत्रा-विज्ञान
ओशो
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