और कुछ पीने योग्य है भी नहीं। वर्षों से पानी तो मैंने पीआ नहीं, इतना
तो मैं पक्का भरोसा दिला देता हूं दस साल से तो नहीं पीआ। सोडा पीता हूं और
शराब। सोडा बाहर का, शराब भीतर की। मैं संतुलन में भरोसा रखता हूं: थोड़ा बाहर का, थोड़ा भीतर का। जो कभी खींची नहीं गयी ऐसी शराब है एक जिसकी तरफ कभी कोई ताक नहीं सका ऐसी आब है एक मैं इस बिना खींची शराब को पीता हूं मैं इस बिना देखी आब को जीता हूं और मैं तुम्हें भी शराबी बनाना चाहता हूं।
भक्ति यानी शराब। शांडिल्य यानी
शराबी। भक्त का मंदिर यानी मधुशाला, मादकता, माधुर्य। परमात्मा को पीओ, फिर
कोई और शराब पीने जैसी नहीं रह जाएगी। मेरे देखे जो लोग शराब पीते हैं, वे
इसीलिए पीते हैं कि उनकी असली खोज तो परमात्मा की है, और परमात्मा मिलता
नहीं। असली खोज तो यह है कि कैसे अपने को डुबा दें, लेकिन ऐसी कोई जगह नहीं
मिलती जहां डुबा दें, तो चलो भुला लें, डुबना तो होता नहीं तो थोड़ी देर को
भुला लें। शराब थोड़ी देर को भ्रांति देती है कि भूल गए अपने को। अहंकार
बहुत पीड़ा है।
ये दो ही उपाय हैं या तो परमात्मा में डुबा दो अहंकार को, तो सदा को डूब जाता है, फिर कोई पीड़ा नहीं बचती। अगर उतनी हिम्मत न हो सदा को डुबाने की, तो फिर शराब में डुबाओ। फिर शराबें कई तरह की हैं। कोई एक ही तरह की शराब नहीं है शराब और शराब। जो मधुशाला में बिकती है वह तो एक ही प्रकार की शराब है। और बहुत तरह की शराबें हैं जो दूसरी जगहें बिकती हैं, और वे ज्यादा सूक्ष्म हैं।
जो आदमी धन के पीछे दीवाना है, तुम सोचते हो शराब नहीं पी रहा है। शास्त्रों में धन की दीवानगी को धन मद कहा है धन की शराब। उस को एक नशा है। जैसे जैसे धन की ढेरी बढ़ती जाती है, वह इसी में अपने मैं को डुबा रहा है। वह अपनी तिजोरी में अपने मैं को डुबा रहा है। उस को कुछ और चिंता नहीं बची है अब, दुनिया में और कोई चिंता नहीं, सारी चिंताएं उसने एक चीज में नियोजित कर दीं धन का ढेर; यह उसकी शराब है। शास्त्र ठीक कहते हैं : धन मद।
जो आदमी पद के पीछे दीवाना है, तुम सोचते हो वह शराबी नहीं। तुम सोचते हो मोरारजी देसाई शराबी नहीं। पद मद शास्त्र कहते हैं। धन से भी बड़ा मद है पद का। बड़ा ही होगा, क्योंकि आदमी अस्सी साल का हो जाए और फिर भी पद के मोह से मुका न हो, तो कब मुका होगा? भयंकर होगा, बचें चाहे जाएं लेकिन पद पर तो पहुंचना ही है। किसी तरह पहुंचें, पद पर तो पहुंचना ही है। जवान आदमी पद का दीवाना हो, सूक्ष्म है। जवानी को मूढ़ताएं माफ की जा सकती हैं। जवानी एक तरह की नासमझी है। मगर अस्सी साल का आदमी पद के पीछे दीवाना हो, क्षम्य नहीं है। माफ नहीं किया जा सकता। उसका अर्थ हुआ, बाल धूप में पकाए। उसका अर्थ हुआ, जिंदगी ऐसे ही चली गयी, एक आदत की तरह। और मजा यह है कि मोरारजी खिलाफ हैं शराब कें शराब बंदी होनी चाहिए।
मेरे देखे राजनीति की शराब से जितनी हानि मनुष्य जाति को हुई है, उतनी अंगूर की शराब से नहीं हुई है। राजनीति से जितनी हिंसा और जितना खून बहा है, उतनी अंगूर की शराब से नहीं बहा है। लेकिन एक तरह का शराबी दूसरे तरह की शराब के विरोध में होता है। उस को अपनी शराब पसंद है, वह चाहता है सभी लोग उसी शराब में डूब जाएं।
शराबी की तलाश क्या है चाहे वह किसी तरह का शराबी हो; संगीत में खोजे, कि संभोग में खोजे, कि संपत्ति में खोजे, कि सुयश में खोजे, कि सत्ता में खोजे, कहीं भी खोजे, शराबी की खोज क्या है? वह अपने को डुबाना चाहता है। बहुत गहरे में तो वह परमात्मा को खोज रहा है, लेकिन उसे साफ समझ नहीं है कि वह क्या खोज रहा है। पद को खोजने वाला भी बहुत गहरे में परम पद को खोज रहा है, परमात्मा को खोज रहा है। धन को खोजने वाला भी बहुत गहरे में परम धन को खोज रहा है, परमात्मा को खोज रहा है। शराबी भी वस्तुत: तो उस शराब को पीना चाहता है जो कभी खींची नहीं गयी ऐसी शराब है एक जिसकी तरफ कभी कोई ताक नहीं सका ऐसी आब है एक मैं इस बिना खींची शराब को पीता हूं।
मैं इस बिना देखी आब को जीता हूं। वह भी वही पीना चाहता है, लेकिन वह बड़ी महंगी मालूम पड़ती है। दाम चुका
सकेगा कि नहीं। यात्रा बड़ी लंबी है, यात्रा शिखर की, उसे अपने पैरों पर
इतना भरोसा नहीं। यात्रा कठिन और दुर्गम, खड्ग की धार पर चलना होगा। तो वह
सोचता है यह अपने वश की बात नहीं, हम तो जाकर बाजार में सस्ती शराब खरीद
लेते हैं और पी लेते हैं। चलो थोड़ी देर को भूले, यही बहुत। अहंकार थोड़ी देर
को भी भूल जाता है शराब में, तो भी राहत मिलती है। तो सोचो जरा उस शराब की
जहां अहंकार सदा के लिए भूल जाएगा! फिर राहत ही राहत है। फिर विश्राम है,
विराम है। उस दशा को भक्तों ने बैकुंठ कहा है।
कुरान में यह जो बात है कि स्वर्ग में शराब के चश्मे बहते हैं, उसका यही अर्थ होना चाहिए कि वहां अहंकार को बचाने का कोई उपाय नहीं है, सब डूब जाएगा। खुदा शराब है, यह मतलब होना चाहिए।
पीओ तुम भी, बनो शराबी तुम भी। भक्ति का मार्ग तो पियक्कड़ों का मार्ग है। पर ऐसी शराब पीओ कि फिर नशा उतरे न। चढ़े तो चढ़े, फिर उतरे न। उतर उतर जाए, वैसे नशे का कितना मूल्य हो सकता है? वैसा नशा क्षणभंगुर है। इसलिए शांडिल्य कहते हैं : क्षणभंगुर से संबंध छोड़ो, और शाश्वत से जोड़ो। क्षणभंगुर से प्रेम करो, दुख आता है। शाश्वत से प्रेम करो, परम सुख आता है। क्षणभंगुर की शराब पीओ अंगूर की शराब दुख लाएगी। थोड़ी देर को धोखा होगा, फिर धोखा टूटेगा। हर बार जब धोखा टूटेगा, तुम और भी गर्त में गिरोगे, और भी अंधेरे में गिरोगे, और भी नर्क में गिरोगे। शाश्वत की शराब पीओ। और जब शाश्वत उपलब्ध हो सकता हो, तो फिर क्या छुद्र को पीना! जब आकाश से बरसता हुआ स्वाति नक्षत्र का जल उपलब्ध हो सकता हो, तो नाली की गंदगी में क्यों डूबना!
हाँ, मैं शराब पीता हूं और मैं तुम्हें भी शराब पीना सिखाना चाहता हूं।
अथातो भक्ति जिज्ञासा
ओशो
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