इपीकुरस से मिलने यूनान का सम्राट गया था। देख कर दंग हुआ। उसने भी सोचा
था, यह नास्तिक इपीकुरस! न ईश्वर को मानता, न आत्मा को मानता, सिर्फ आनंद
को मानता है; बिलकुल, निपट नास्तिक है! तो सोचा था उसने, पता नहीं यह क्या
कर रहा होगा। जब वे पहुंचे वहां तो बहुत हैरान हुए। इपीकुरस का बगीचा था
जिसमें उसके शिष्य और वह रहता था। सम्राट ने उसे देखा तो वह इतना शांत
मालूम पड़ा जैसा कि ईश्वरवादी कोई साधु कभी दिखाई नहीं पड़ा था। वह बहुत खुश
हुआ उसके आनंद को देख कर। उनके पास कुछ ज्यादा नहीं था; लेकिन जो भी था वे
उसके बीच ऐसे रह रहे थे जैसे सम्राट हों।
सम्राट ने कहा कि मैं कुछ भेंट भेजना चाहता हूं। डरता था सम्राट–कि
इपीकुरस से कहना कि भेंट भेजना चाहता हूं, जो भौतिकवादी, पता नहीं,
साम्राज्य ही मांग ले–डरता था। तो उसने कहा, फिर भी उसने कहा कि आप जो
कहें, मैं भेज दूं। तो इपीकुरस बड़े सोच में पड़ गया। उसके माथे पर, कहते
हैं, पहली दफा चिंता आई। उसने आंखें बंद कर लीं; उसके माथे पर बल पड़ गए। और
सम्राट ने कहा कि आप इतने दुखी क्यों हुए जा रहे हैं?
तो इपीकुरस ने कहा, जरा मुश्किल है, क्योंकि हम भविष्य का कोई विचार
नहीं करते। और आप कहते हैं कुछ मांग लो, कुछ आप भेजना चाहते हैं। तो बड़ी
मुश्किल में आपने डाल दिया। हमारे पास जो है हम उसमें आनंद लेते हैं, और जो
हमारे पास नहीं है उसका हम विचार नहीं करते। अब इसमें मुझे विचार करना
पड़ेगा, जो मेरे पास नहीं है, आपसे मांगने का।
तो उसने कहा कि एक ही रास्ता है। एक नया-नया आदमी आज ही आश्रम में भरती
हुआ है। वह अभी इतना निष्णात नहीं हुआ आनंद में, उससे हम पूछ लें। मगर वह
जो नया-नया आश्रम में आया था, इपीकुरस के ही आश्रम में आया था, सोच-समझ कर
आया था। उसने भी बहुत सोच-समझ कर यह कहा कि आप ऐसा करें, थोड़ा मक्खन भेज
दें; यहां रोटियां बिना मक्खन की हैं।
सम्राट ने मक्खन भेजा नहीं, वह मक्खन साथ लेकर आया। वह देखना चाहता था
कि मक्खन का कैसा स्वागत होता है। उस दिन आश्रम में ऐसा था जैसे स्वर्ग उतर
आया हो। वे सब नाचे, आनंदित हुए; मक्खन रोटी पर था! वह सम्राट अपने
संस्मरणों में लिखवाया है कि मुझे भरोसा नहीं आता कि मैंने जो देखा वह सत्य
था या स्वप्न। क्योंकि मेरे पास सब कुछ है और मैं इतना आनंदित नहीं हूं और
उस रात सिर्फ रोटी पर मक्खन था और वे सब इतने आनंदित थे!
जो है उसमें सुख लेने की कला संतोष है। संतोष का मतलब समझ लें। संतोष
कोई अपने आपको समझा लेना नहीं है, कोई कंसोलेशन नहीं है, कि अपने मन को
समझा लिया कि नहीं है अपने पास तो अब उसकी क्या मांग करना। जो नहीं है वह
नहीं है, जो है इसी में भगवान को धन्यवाद दो। वैसे मन में लगा ही है कि वह
होना चाहिए था। क्योंकि जो नहीं है, उसका भी क्या विचार करना? जो नहीं है
उसका कोई विचार नहीं, और जो है उसका रस; उस रस में लीन हो जाने से संतोष
जन्मता है। और संतोष सुख है, संतोष धन है।
असंतुष्ट सदा निर्धन है, उसके पास कितना ही हो; क्योंकि वह जो है उसका
तो हिसाब ही नहीं रखता, वह तो जो नहीं है उसका हिसाब रखता है। तो असंतुष्ट
सदा निर्धन है, क्योंकि अभाव का हिसाब रखता है, वह जो नहीं है उसका हिसाब
है। संतुष्ट धनवान है, क्योंकि वह उसका ही हिसाब रखता है जो है। और जो है
वह इतना है कि आपने कभी उसका हिसाब नहीं रखा, इसलिए आपको पता नहीं है।
ताओ उपनिषद
ओशो
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