मैंने सुना है कि एक आदमी परदेश में गया है। वहा की भाषा नहीं जानता,
अपरिचित है, किसी को पहचानता नहीं। एक बहुत बड़े महल के द्वार पर खड़ा है।
लोग भीतर जा रहे हैं, वह भी उनके पीछे भीतर चला गया है। वहां देखा कि बड़ा
साज सामान है, लोग भोजन के लिए बैठ रहे हैं, तो वह भी बैठ गया है। भूख उसे
जोर से लगी है। बैठते ही थाली बहुत बहुत भोजनों से भरी उसके सामने आ गई, तो
उसने भोजन भी कर लिया है। उसने सोचा कि ऐसा मालूम पड़ता है, सम्राट का महल
है और कोई भोज चल रहा है। अतिथि आ-जा रहे हैं।
वह उठकर धन्यवाद देने लगा है। जिस आदमी ने भोजन लाकर रखा है, उसे बहुत
झुक झुककर सलाम करता है। लेकिन वह आदमी उसके सामने बिल बढ़ाता है। वह एक
होटल है। वह आदमी उसे बिल देता है कि पैसे चुकाओ। और वह सोचता है कि शायद
मेरे धन्यवाद का प्रत्युत्तर दिया जा रहा है! वह बिल लेकर खीसे में रखकर और
फिर धन्यवाद देता है कि बहुत बहुत खुश हूं कि मेरे जैसे अजनबी आदमी को
इतना स्वागत, इतना सम्मान दिया, इतना सुंदर भोजन दिया। मैं अपने देश में
जाकर प्रशंसा करूंगा।
लेकिन वह बैरा कुछ समझ नहीं पाता, वह उसे पकड़कर मैनेजर के पास ले जाता
है। वह आदमी सोचता है कि शायद मेरे धन्यवाद से सम्राट का प्रतिनिधि इतना
प्रसन्न हो गया है कि शायद किसी बड़े अधिकारी से मिलने ले जा रहा है। जब वह
मैनेजर भी उससे कहता है कि पैसे चुकाओ, तब भी वह यही समझता है कि धन्यवाद
का उत्तर दिया जा रहा है। वह फिर धन्यवाद देता है। तब मैनेजर उसे अदालत में
भेज देता है।
तब वह समझता है कि अब मैं सम्राट के सामने ही मौजूद हूं। मजिस्ट्रेट
उससे बहुत कहता है कि तुम पैसे चुकाओ, तुम यह क्या बातें करते हो? या तो
तुम पागल हो या किस तरह के आदमी हो? लेकिन वह धन्यवाद ही दिए जाता है, वह
कहता है, मेरी खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं। तब वह मजिस्ट्रेट कहता है कि इस
आदमी को गधे पर उलटा बिठाकर, इसके गले में एक तख्ती लगाकर कि यह आदमी बहुत
चालबाज है, गांव में निकालो।
जब उसे गधे पर बिठाया जा रहा है, तो वह सोचता है कि अब मेरा प्रोसेशन,
अब मेरी शोभायात्रा निकल रही है। निकलती है शोभायात्रा। दस पांच बच्चे भी
ढोल ढमाल पीटते हुए पीछे हो लेते हैं। लोग हंसते हैं, खिलखिलाते हैं, भीड़
लग जाती है। वह सबको झुक झुककर नमस्कार करता है। वह कहता है कि बड़े आनंद की
बात है, परदेशी का इतना स्वागत!
फिर भीड़ में उसे एक आदमी दिखाई पड़ता है, जो उसके ही देश का है। उसे
देखकर वह आनंद से भर जाता है। क्योंकि जब तक अपने देश का कोई देखने वाला न
हो, तो मजा भी बहुत नहीं है।
घर जाकर कहेंगे भी, तो कोई भरोसा भी करेगा कि नहीं करेगा! एक आदमी भीड़
में दिखाई पड़ता है, तो वह चिल्लाकर कहता है कि अरे भाई, ये लोग कितना
स्वागत कर रहे हैं! लेकिन वह आदमी सिर झुकाकर भीड़ से भाग जाता है। क्योंकि
उसे तो पता है कि यह क्या हो रहा है! लेकिन वह गधे पर सवार आदमी समझता है,
ईर्ष्या से जला जा रहा है। ईर्ष्या से जला जा रहा है।
करीब करीब अहंकार पर बैठे हुए हम इसी तरह की भ्रांतियों में जीते हैं।
उनका जीवन के तथ्य से कोई संबंध नहीं होता, क्योंकि जीवन की भाषा हमें
मालूम नहीं है। और हम जो अहंकार की भाषा बोलते हैं, उसका जीवन से कहीं कोई
तालमेल नहीं होता।
गीता दर्शन
ओशो
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