एक कथा मुझे स्मरण आती है। बिलकुल काल्पनिक कथा है। पर बहुत सत्य भी है।
एक वृद्ध साधु के पास से कोई देवता निकलता था। उस साधु ने कहा’ प्रभु से
पूछना कि मेरी मुक्ति में कितनी देर और है?’ उस वृद्ध साधु के पास ही एक
बरगद के दरख्त के नीचे एक बिलकुल नव दीक्षित युवा संन्यासी का आवास भी था।
उस देवता ने उस युवा संन्यासी से भी पूछा कि क्या आपको भी प्रभु से अपनी
मुक्ति के संबंध में पूछना है? पर वह संन्यासी कुछ बोला नहीं, वह जैसे
एकदम शांत और शून्य था।
फिर कुछ समय बाद वह देवता लौटा। उसने वृद्ध तपस्वी से कहा.’ मैंने प्रभु को पूछा था। वे बोले. अभी तीन जन्म और लग जाएंगे!’
वृद्ध तपस्वी ने माला क्रोध में नीचे पटक दी। उसकी आंखें लाल हो गईं। उसने कहा’ तीन जन्म और? कैसा अन्याय है?’
वह देवता बरगद वाले युवा संन्यासी के पास गया। उससे उसने कहा’ मैंने
प्रभु से पूछा था। वे बोले वह नवदीक्षित साधु जिस वृक्ष के नीचे आवास करता
है, उस वृक्ष में जितने पत्ते हैं, उतने ही जन्म उसे और साधना करनी है।’
युवा साधु की आंखें आनंद से भर गईं और वह उठ कर नाचने लगा और उसने कहा
:’ तब तो पा ही लिया। जमीन पर कितने वृक्ष हैं और उन वृक्षों में कितने
पत्ते हैं! यदि इस छोटे से बरगद के दरख्त के पत्तों के बराबर जन्मों में ही
वह मिल जाएगा तो मैंने उसे अभी ही पा लिया है!’
यह भूमिका है जिसमें सत्य की फसल काटी जाती है।
और कथा का अंत जानते हैं क्या हुआ?
वह साधु नाचता रहा, नाचता रहा और उस नृत्य में ही उसी क्षण वह मुक्त हो
गया और प्रभु को उपलब्ध हो गया। शांत और अनंत प्रेम प्रतीक्षा का वह क्षण
ही सबकुछ था। वह क्षण ही मुक्ति है।
इसे मैं अनंत प्रतीक्षा कहता हूं। और जिसकी प्रतीक्षा अनंत है, उसे
सब कुछ अभी और यहीं उपलब्ध हो जाता है। वह भाव भूमि ही उपलब्धि है।
क्या आप इतनी प्रतीक्षा करने को तैयार हैं?
साधनापथ
ओशो
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