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Friday, February 19, 2016

अर्जुन पूछता है, ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत क्या है? अधिदैव क्या है? यहां अधियज्ञ कौन है? इस शरीर में वह कैसे है? और युक्त चित्त वाले पुरुषों द्वारा अंत समय में आप किस प्रकार जानने में आ जाते हो?

ऐसा भी नहीं लगता कि किसी भी एक प्रश्न में उसकी बहुत उत्सुकता होगी! वह इतनी त्वरा से, इतनी तीव्रता से सवाल पूछ रहा है कि लगता है, सवाल पूछने के लिए ही सवाल पूछे जा रहे हैं। अन्यथा ब्रह्म के बाद कोई सवाल नहीं है। और ब्रह्म के बाद जो सवाल पूछता है, वह कहता है, ब्रह्म में उसकी बहुत उत्सुकता और जिज्ञासा नहीं है। अन्यथा एक सवाल काफी है कि ब्रह्म क्या है? दूसरा सवाल उठाने की अब कोई और जरूरत नहीं है। इस एक का ही जवाब सबका जवाब बन जाएगा। एक को ही जानने से तो सब जान लिया जाता है। लेकिन जो सबको जानने की विक्षिप्तता से भरे होते हैं, वे एक को भी जानने से वंचित रह जाते हैं।


ब्रह्म के बाद भी अर्जुन के लिए सवाल हैं। इससे एक बात साफ है कि कोई भी जवाब मिल जाए, अर्जुन के सवाल हल होने वाले दिखाई नहीं पड़ते हैं। जो ब्रह्म के बाद भी सवाल पूछ सकता है, वह हर सवाल के बाद, हर जवाब के बाद, नए सवाल खड़े करता चला जाएगा।


असल में हमारा मन जब भी एक जवाब पाता है, तो उस जवाब का एक ही उपयोग करना जानता है, उससे दस सवाल बनाना जानता है।


पूरे मनुष्य जाति के मन का इतिहास नए-नए प्रश्नों का इतिहास है। एक भी उत्तर आदमी खोज नहीं पाता। हालांकि हर दिए गए उत्तर के साथ दस नए सवाल खड़े हो जाते हैं।


अगर हम पीछे लौटें, तो आदमी के उत्तर जितने आज हैं, उतने ही सदा थे। कृष्ण के समय में भी उत्तर वही था; बुद्ध के समय में भी उत्तर वही था; आज भी उत्तर वही है। लेकिन सवाल आज ज्यादा हैं। अगर कोई प्रगति हुई है, तो वह एक कि हमने और ज्यादा सवाल पैदा कर लिए हैं; जवाब नहीं। और ज्यादा सवालों की भीड़ में जो हाथ में जवाब थे, वे भी छूट गए हैं और खोते चले जाते हैं।


यह बात उलटी मालूम पड़ेगी कि जहां बहुत सवाल होते हैं, वहां जवाब कम हो जाते हैं; और जहां सवाल बिलकुल नहीं होते, वहीं जवाब, उत्तर, दि आंसर, एक ही उत्तर सारी ग्रंथियों को, सारी उलझनों को तोड़ जाता है।


बादरायण का ब्रह्म-सूत्र एक छोटे-से सूत्र से शुरू होता है। और एक छोटे-से सवाल का ही जवाब पूरे बादरायण के ब्रह्म-सूत्र में है। छोटे-से दो शब्दों से शुरू होता है ब्रह्म-सूत्र, अथातो ब्रह्म जिज्ञासा–यहां से ब्रह्म की जिज्ञासा शुरू होती है। पर यह आखिरी सवाल है; अब इसके आगे सवाल नहीं हो सकते। हेंस दि इंक्वायरी आफ दि ब्रह्म; यहां से शुरू होती है ब्रह्म की जिज्ञासा। बस, अब कोई सवाल नहीं उठ सकते; आखिरी सवाल पूछ लिया गया।


अर्जुन भी पूछता है, ब्रह्म क्या है? लेकिन क्षणभर रुकता नहीं, जरा-सा अंतराल नहीं है। पूछता है, अध्यात्म क्या है? अगर कृष्ण ने लौटकर पूछा होता कि अर्जुन, अपने सवाल को फिर दोहरा, तो जैसे मुझे उसका कागज हाथ में रखना पड़ा, ऐसा उसे भी रखना पड़ता। बहुत संभावना तो यही है कि वह दुबारा अपना सवाल वैसा का वैसा न दोहरा पाता। और यह भी संभावना बहुत है कि उसमें ब्रह्म और अध्यात्म चूक सकते थे, भूल जा सकते थे।



ऐसा मेरा रोज का अनुभव है। आता है कोई, कहता है, ईश्वर के संबंध में कुछ कहें। अगर मैं दो क्षण उसकी बात को टाल-मटोल कर जाता हूं, पूछता हूं, कब आए? कैसे हैं? वह फिर घंटेभर बैठकर बात करता है, दुबारा नहीं पूछता उस ईश्वर के संबंध में, जिसे पूछते हुए वह आया था!


ऐसे सवाल भी हम कहां से पूछते होंगे? ये हमारे हृदय के किसी गहरे तल से आते हैं या हमारी बुद्धि की पर्त पर धूल की तरह जमे हुए होते हैं? ये हमारे प्राणों की किसी गहरी खाई से जन्मते हैं या बस हमारी बुद्धि की खुजलाहट हैं? अगर यह बुद्धि की खुजलाहट है, तो खाज को खुजला लेने से जैसा रस आता है, वैसा रस तो आएगा, लेकिन बीमारी घटेगी नहीं, बढ़ेगी।


अर्जुन की बीमारी घटती हुई मालूम नहीं पड़ती। वह पूछता ही चला जाता है। वह यह भी फिक्र नहीं करता कि जो मैं पूछ रहा हूं, वह बहुत बार पहले भी पूछ चुका हूं। वह यह भी फिक्र नहीं करता कि मैं केवल नए शब्दों में पुरानी ही जिज्ञासाओं को पुनः-पुनः खड़ा कर रहा हूं। वह इसकी भी चिंता नहीं करता कि कृष्ण उत्तर देते जा रहे हैं, लेकिन मैं उत्तर नहीं सुन रहा हूं।


शायद वह इस खयाल में है कि कोई ऐसा सवाल पूछ ले कि कृष्ण अटक जाएं! शायद वह इस प्रतीक्षा में है कि कोई तो वह सवाल होगा, जहां कृष्ण भी कह देंगे कि कुछ सूझता नहीं अर्जुन, कुछ समझ नहीं पड़ता। इस प्रतीक्षा में उसका गहरा मन है। उसका अनकांशस माइंड, उसका अचेतन मन इस प्रतीक्षा में है कि कहीं वह जगह आ जाए, या तो कृष्ण कह दें कि मुझे नहीं मालूम; या कृष्ण ऊब जाएं, थक जाएं और कहें कि जो तुझे करना हो कर; मुझसे इसका कुछ लेना-देना नहीं है! तो अर्जुन जो करना चाहता है, उसे कर ले।


लेकिन कृष्ण जैसे लोग थकते नहीं। यद्यपि यह बिलकुल चमत्कार है। अर्जुन जैसे थकाने वाले लोग हों, तो कृष्ण जैसे व्यक्ति को भी थक ही जाना चाहिए। लेकिन कृष्ण जैसे व्यक्ति थकते नहीं हैं। और क्यों नहीं थकते हैं? न थकने का कुछ राज है, वह मैं आपसे कहूं, फिर हम कृष्ण के उत्तर पर चलें।


न थकने का एक राज तो यह है कि कृष्ण यह भलीभांति जानते हैं कि अर्जुन, तुझे तेरे प्रश्नों से कोई भी संबंध नहीं है। और अगर अर्जुन इस दौड़ में लगा है कि हम प्रश्न खड़े करते चले जाएंगे, ताकि किसी जगह तुम्हें हम अटका लें कि अब उत्तर नहीं है। कृष्ण भी उसके साथ-साथ एक कदम आगे चलते चले जाते हैं कि हम तुझे उत्तर दिए चले जाएंगे। कभी तो वह क्षण आएगा कि तेरे प्रश्न चुक जाएंगे और उत्तर तेरे जीवन में क्रांति बन जाएगा।


गीता दर्शन 

ओशो 

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