एक साध्वी ने योग पर एक किताब लिखी, मुझे भेजी। देखा, किताब मुझे बहुत
पसंद पड़ी; बहुत अच्छी लिखी। लेकिन दो-चार जगह मुझे ऐसा लगा कि उस साध्वी को
योग का या ध्यान का कोई भी अनुभव नहीं है। क्योंकि जो फिजूल बातें थीं, वह
तो उसने बड़े बलपूर्वक कहीं, और जो सार्थक बातें थीं, उनमें बड़ी झिझक थी।
फिर दो-चार वर्ष के बाद वह साध्वी मुझे मिली। मैंने कुछ बात न की उस
किताब की। थोड़ी देर के बाद उसने कहा, मुझे अकेले में कुछ बात करनी है।
मैंने कहा, पूछें। उसने कहा, मुझे ध्यान के संबंध में कुछ बताएं कि कैसे
करूं? मैंने कहा, चार वर्ष हुए तुम्हारी किताब देखी थी, तब भी मुझे लगा था
कि ध्यान का तुम्हें कुछ पता नहीं होना चाहिए। क्योंकि जो-जो गहरी बात थी,
उसमें झिझक थी। और जो-जो बेकार बात थी, बहुत बोल्ड, बहुत साहस से कही गई
थी! उसने कहा, मुझे तो कुछ भी पता नहीं। फिर, मैंने कहा, वह किताब क्यों
लिखी? उसने कहा, वह तो मैंने दस-पचास किताबें पढ़कर लिखी–लोगों के लाभ के
लिए। मैंने कहा, जिस किताब को लिखने से भी तुम्हें लाभ नहीं हुआ, उस किताब
को पढ़ने से लोगों को लाभ होगा? तुम लिखने के चार साल बाद भी अभी ध्यान कैसे
करें, यह पूछती हो; और तुमने उसमें ध्यान के चार प्रकार होते हैं और
क्या-क्या होता है, सब गिनाया हुआ है! उसने कहा, वह सब शास्त्रों में लिखा
है।
पर ध्यान को शास्त्रों से जो जानेगा, उसने सूरज नहीं देखा, सूरज की
तस्वीर देखी। तस्वीर को हाथ में रखा जा सकता है, सूरज को हाथ में नहीं रखा
सकता। तस्वीर जला नहीं सकती, सूरज के पास जाना बड़ा कठिन है। जिसने शास्त्र
से ध्यान सीखा, उसने कागज की नाव में यात्रा करने का विचार किया है। खतरनाक
है वह यात्रा।
उधार है ज्ञान, इसलिए झिझकता हुआ है। ज्ञान ने साहस खो दिया। बल्कि और
मजे की बात है, अज्ञान बहुत साहसी है आज। अज्ञान इतना साहसी कभी भी न था।
ध्यान रहे, अगर चार्वाक को कहना पड़ता था कि ईश्वर नहीं है, तो हजार
दलीलें देनी पड़ती थीं, तब चार्वाक कहता था, ईश्वर नहीं है। ईश्वर नहीं है,
एक कनक्लूजन था, एक निष्पत्ति थी। हजार दलील देता था और फिर कहता था, देखो,
यह दलील, यह दलील, यह दलील; तब मैं कहता हूं कि ईश्वर नहीं है। हजार दलील
देता था, तब कहता था कि देखो, मैं कहता हूं, आत्मा नहीं है। ज्ञान बहुत
शक्तिशाली था, वह कहता था, ब्रह्म है–बिना दलील के। और अज्ञान बहुत कमजोर
था; वह हजार दलील जुटाता था, तब कहता था कि शक होता है आत्मा पर।
आज हालत बिलकुल उलटी है। आज जिसको कहना है, आत्मा नहीं है, बिना दलील के
कहता है, आत्मा नहीं है, ईश्वर नहीं है; कोई दलील देने की जरूरत नहीं है।
और जिसको कहना है, ईश्वर है, वह हजार दलीलें इकट्ठी करता है कि यह कारण, यह
कारण, इसलिए। जैसे कि कुम्हार घड़े को बनाता है, ऐसे भगवान जगत को बनाता
है। कुम्हार, भगवान को सिद्ध करने के लिए दलील है। बेचारा कुम्हार, उसका
कोई हाथ नहीं! इतनी कमजोर दलीलों पर कहीं ज्ञान खड़ा हुआ है?
ज्ञान अनुभव है।
गीता दर्शन
ओशो
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