सत्य को जब भी किसी के पास समझने कोई गया हो, तो एक मैत्री का संबंध
अनिवार्य है। अन्यथा सत्य को पहचाना नहीं जा सकता, समझा नहीं जा सकता, सुना
भी नहीं जा सकता।
जिसके प्रति मैत्री का भाव नहीं, उसे हम अपने भीतर प्रवेश नहीं देते
हैं। और सत्य बड़ा सूक्ष्म प्रवेश है। उसके लिए एक रिसेप्टिविटी, एक
ग्राहकता चाहिए।
जब आप अपरिचित आदमी के पास होते हैं, तो शायद आपने खयाल किया हो, न किया
हो; न किया हो, तो अब करें; जब आप अपरिचित, अजनबी आदमी के पास होते हैं,
तो क्लोज्ड हो जाते हैं, बंद हो जाते हैं। आपके सब द्वार-दरवाजे चेतना के
बंद हो जाते हैं। आप संभलकर बैठ जाते हैं; किसी हमले का डर है। अनजान आदमी
से किसी आक्रमण का भय है। न हो आक्रमण, तो भी अनजान आदमी अनप्रेडिक्टिबल
है। पता नहीं क्या करे! इसलिए तैयार होना जरूरी है। इसलिए अजनबी आदमी के
साथ बेचैनी अनुभव होती है। मित्र है, प्रिय है, तो आप अनआर्म्ड हो जाते
हैं। सब शस्त्र छोड़ देते हैं रक्षा के। फिर भय नहीं करते। फिर सजग नहीं
होते। फिर रक्षा को तत्पर नहीं होते। फिर द्वार-दरवाजे खुले छोड़ देते हैं।
मित्र है, तो अतिथि हो सकता है आपके भीतर। मित्र नहीं है, तो अतिथि नहीं
हो सकता। सत्य तो बहुत बड़ा अतिथि है। उसके लिए हृदय के सब द्वार खुले होने
चाहिए। इसलिए एक इंटिमेट ट्रस्ट, एक मैत्रीपूर्ण श्रद्धा अगर बीच में न
हो, एक भरोसा अगर बीच में न हो, तो सत्य की बात कही तो जा सकती है, लेकिन
सुनी नहीं जा सकती। और कहने वाला पागल है, अगर उससे कहे, जो सुनने में
समर्थ न हो।
ओशो
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