हम दुखी हैं। हम जब छोड़कर जाते हैं तो दुख के कारण छोड़कर जाते हैं।
बुद्ध और महावीर जब छोड़कर जाते हैं तो सुख के कारण छोड़कर जाते हैं। हममें
और बुद्ध और महावीर में भी फर्क है। हमारे छोड़ने का मूल आधार दुख होता है,
उनके छोड़ने का मूल आधार सुख होता है। हैं तो वे भी सुख से ही गए हुए
संन्यासी, लेकिन कृष्ण और उनमें भी एक फर्क है और वह फर्क यह है कि वे सुख
को छोड़कर गए हैं, कृष्ण छोड़कर नहीं जा रहे हैं। कृष्ण स्वीकार कर ले रहे
हैं जो है। असल में सुख को छोड़ने योग्य भी नहीं पा रहे हैं। भोगने योग्य का
सवाल ही नहीं है, छोड़ने योग्य भी नहीं पा रहे हैं। जीवन जैसा है उसमें कुछ
भी रद्दोबदल करने की कृष्ण की कोई इच्छा नहीं है।
एक फकीर ने कहीं कहा है अपनी एक प्रार्थना में कि हे परमात्मा, तू तो
मुझे स्वीकार है लेकिन तेरी दुनिया नहीं। सभी फकीर यही कहेंगे कि तू तो
मुझे स्वीकार है, लेकिन तेरी दुनिया नहीं। ये नास्तिक से उलटे हैं। नास्तिक
कहता है, तेरी दुनिया तो स्वीकार है, तू नहीं। आस्तिक कहता है, तेरी
दुनिया तो स्वीकार नहीं है, तू स्वीकार है। ये दोनों एक ही सिक्के के दोहरे
पहलू हुए। कृष्ण की आस्तिकता बहुत अदभुत है। कहना चाहिए, कृष्ण ही आस्तिक
हैं। तू भी स्वीकार है, तेरी दुनिया भी स्वीकार है। और यह स्वीकृति इतनी
गहरी है कि कहां तेरी दुनिया समाप्त होती है और कहां से तू शुरू होता है,
यह तय करना मुश्किल है। असल में तेरी दुनिया भी तेरा फैला हुआ हाथ है और तू
ही तेरी दुनिया का छिपा हुआ अंतर्मम है। इससे ज्यादा कोई फर्क नहीं है।
कृष्ण समस्त को स्वीकार कर रहे हैं, इसे ध्यान में रखना जरूरी है–दुख को
भी नहीं छोड़ रहे हैं, सुख को भी नहीं छोड़ रहे हैं। जो भी है उसे छोड़ ही
नहीं रहे, छोड़ने का भाव ही नहीं है। छोड़ने की बात ही नहीं है। छोड़ने से ही,
अगर हम ठीक से समझें तो व्यक्ति शुरू हो जाता है। जैसे ही हम छोड़ते हैं,
मैं शुरू हो जाता हूं। लेकिन अगर हम कुछ छोड़ते ही नहीं, तो मेरे होने का
उपाय ही नहीं है।
इसलिए कृष्ण से निरहंकारी व्यक्तित्व खोजना मुश्किल है।
और निरहंकारी हैं इसलिए ही उन्हें अहंकार की बात करने में भी कोई कठिनाई
नहीं होती है, वह अर्जुन से कह सकते हैं–तू सबको छोड़कर मेरी शरण में आ जा।
यह बड़े मजे की बात है, यह बड़े अहंकार की घोषणा है। इससे ज्यादा “इगोइस्ट’
घोषणा क्या होगी कि कोई आदमी किसी से कहे–तू सबको छोड़कर मेरी शरण में आ जा!
लेकिन हमको भी दिखाई पड़ता है कि यह अहंकार की घोषणा है, कृष्ण को दिखाई
नहीं पड़ा होगा? इतनी अकल तो रही ही होगी, जितनी हममें है। इतना तो कृष्ण को
भी दिखाई पड़ सकता है कि यह अहंकार की घोषणा है, लेकिन इसे वे बड़ी सहजता से
कर सके।
यह वही आदमी कह सकता है, जिसके पास अहंकार हो ही नहीं। यह वही
आदमी कर सकता है, आ जा मेरी शरण में, जिसको मेरे का कोई पता नहीं है। इसलिए
जब वह कह रहे हैं कि आ जा मेरी शरण में, तब वह यही कह रहे हैं कि शरण में आ
जा। छोड़ दे सब। अपना होना छोड़ दे और जीवन जैसा है उसे स्वीकार कर ले।
कृष्ण स्मृति
ओशो
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