कृष्ण कहते हैं, अजन्मा हूं मैं। यहां जिस मैं की बात कर रहे हैं, वह
परम मैं, परमात्मा का मैं। मेरा कोई जन्म नहीं; फिर भी उतरा हूं इस शरीर
में। तो फिर इस शरीर में उतरना क्या है? उसको वे कहते हैं, योगमाया से।
इस शब्द को समझना जरूरी होगा, क्योंकि यह बहुत की, बहुत कुंजी जैसे
शब्दों में से एक है, योगमाया। योगमाया से, इसका क्या अर्थ है? इसका क्या
अर्थ है? थोड़ा-सा सम्मोहन की दो-एक बातें समझ लें, तो यह समझ में आ सकेगा।
योगमाया का अर्थ है–या ब्रह्ममाया कहें या कोई और नाम दें, इससे कोई
फर्क नहीं पड़ता: अर्थ यही है कि अगर आत्मा चाहे, आकांक्षा करे, तो वह किसी
भी चीज में प्रवेश कर सकती है। आकांक्षा करे, तो किसी भी चीज के साथ
संयुक्त हो सकती है। आकांक्षा करे, तो जो नहीं होना चाहिए वस्तुतः, वह भी
हो सकता है। संकल्प से ही हो जाता है।
सम्मोहन के मैंने कहा एक-दो सूत्र समझें, तो योगमाया समझ में आ सके। वह
भी एक ग्रेटर हिप्नोसिस है। कहें कि स्वयं परमात्मा अपने को सम्मोहित करता
है, तो संसार में उतरता है, अन्यथा नहीं उतर सकता। परमात्मा को भी संसार
में उतरना है–हम भी उतरते हैं, तो सम्मोहित होकर ही उतरते हैं। एक गहरी
तंद्रा में उतरें, तो ही पदार्थ में प्रवेश हो सकता है, अन्यथा प्रवेश नहीं
हो सकता। इसलिए जाग जाएं, तो पदार्थ के बाहर हो जाते हैं। और सम्मोहन में
डूब जाएं, तो पदार्थ के भीतर हो जाते हैं।
अगर किसी व्यक्ति को सम्मोहित किया जाए जो कि दुनिया में हजारों जगह
प्रयोग किए गए हैं, खुद मैंने भी प्रयोग किए हैं और पाया कि सही हैं आपको
अगर सम्मोहित करके बेहोश किया जाए, फिर आपके हाथ में एक कंकड़ रख दिया जाए
साधारण सड़क का उठाकर और कहा जाए, अंगारा रखा है आपके हाथ में। आप चीख मारकर
उस कंकड़ को मेरे लिए और आपके लिए उस अंगारे को फेंक देंगे और चीख मारेंगे,
जैसे अंगारे में हाथ जल गया।
यहां तक तो हम कहेंगे, ठीक है। आदमी गहरी बेहोशी में है। उसे भ्रम हुआ
कि अंगारा है। लेकिन बड़ा मजा तो यह है कि उस बेहोश आदमी के हाथ पर फफोला भी
आ जाएगा। फफोला होश में आने पर भी रहेगा, उतनी ही देर, जितनी देर असली
अंगारे से पड़ा हुआ फफोला रहता है। यह फफोला क्या है? यह योगमाया है। यह
फफोला सिर्फ संकल्प से पैदा हुआ है, क्योंकि अंगारा हाथ पर रखा नहीं गया
था, सिर्फ सोचा गया था।
ठीक इससे उलटा भी हो जाता है। अलाव भरे जाते हैं और लोग अंगारों पर कूद
जाते हैं और जलते नहीं। वह भी संकल्प है। वह भी गहरा संकल्प है, इससे उलटा।
सम्मोहन में अंगारा हाथ पर रख दिया जाए और कहा जाए, ठंडा कंकड़ रखा है, तो
फफोला नहीं पड़ेगा। भीतर हमारी चेतना जो मान ले, वही हो जाता है।
कृष्ण कहते हैं कि मैं परमात्मा की तरफ से बोल रहे हैं कि मैं अपनी योगमाया से शरीर में उतरता हूं।
शरीर में उतरना तो सदा ही सम्मोहन से होता है। लेकिन सम्मोहन दो तरह के
हो सकते हैं। और यही फर्क अवतार और साधारण आदमी का फर्क है। अगर आप जानते
हुए, कांशसली, सचेत, शरीर में उतरें–जानते हुए–तो आप अवतार हो जाते हैं। और
अगर आप न जानते हुए शरीर में उतरें, तो आप साधारण व्यक्ति हो जाते हैं।
सम्मोहन दोनों में काम करता है। लेकिन एक स्थिति में आप सम्मोहित होते हैं
प्रकृति से और दूसरी स्थिति में आप आत्म-सम्मोहित होते हैं,
आटो-हिप्नोटाइज्ड होते हैं। आप खुद ही अपने को सम्मोहित करके उतरते हैं।
कोई दूसरा नहीं, कोई प्रकृति आपको सम्मोहित नहीं करती।
साधारणतः हमारा जन्म इच्छाओं के सम्मोहन में होता है। मैं मरूंगा। हजार
इच्छाएं मुझे पकड़े होंगी, वे पूरी नहीं हो पाई हैं। वे मेरे मन-प्राण पर
अपने घोंसले बनाए हुए बैठी हैं। वे मेरे मन-प्राण को कहती हैं कि और शरीर
मांगो, और शरीर लो; शीघ्र शरीर लो, क्योंकि हम अतृप्त हैं; तृप्ति चाहिए।
जैसे रात आप सोते हैं। और अगर आप सोचते हुए सोए हैं कि एक बड़ा मकान बनाना
है, तो सुबह आप पुनः बड़ा मकान बनाना है, यह सोचते हुए उठते हैं। रातभर
आकांक्षा प्रतीक्षा करती है कि ठीक है, सो लो। उठो, तो वापस द्वार पर खड़ी
है कि बड़ा मकान बनाओ।
रात आखिरी समय, सोते समय जो आखिरी विचार होता है, वह सुबह के समय, उठते
वक्त पहला विचार होता है। खयाल करना तो पता चलेगा। अंतिम विचार, सुबह का
पहला विचार होता है। मरते समय आखिरी विचार, जन्म के समय पहला विचार बन जाता
है। बीच में नींद का थोड़ा-सा वक्त है। वह खड़ा रहता है; इच्छा पकड़े रहती
है। और वह इच्छा आपको सम्मोहित करती है और नए जन्म में यात्रा करवा देती
है।
जब कृष्ण कह रहे हैं, औरों की भांति, तो फर्क इतना ही है कि और
अपनी-अपनी इच्छाओं के सम्मोहन में नए जन्म में प्रविष्ट हुए हैं। उन्हें
कुछ पता नहीं है। जानवरों की तरह गलों में रस्सियां बंधी हों, ऐसे बंधे हुए
खींचे गए हैं इच्छाओं से। इच्छाओं के पाश में बंधे पशुओं की भांति बेहोश,
मूर्च्छित वे नए जन्मों में प्रविष्ट हुए हैं। न उन्हें याद है मरने की, न
उन्हें याद है नए जन्म की; उन्हें सिर्फ याद हैं अंधी इच्छाएं। और वे फिर
जैसे ही शक्ति मिलेगी, शरीर मिलेगा, अपनी इच्छाओं को पूरा करने में लग
जाएंगे। उन्हीं इच्छाओं को, जिन्हें उन्होंने पिछले जन्म में भी पूरा करना
चाहा था और पूरा नहीं कर पाए। उन्हीं इच्छाओं को, जिन्हें उन्होंने और भी
पिछले जन्मों में पूरा करना चाहा था और पूरा नहीं कर पाए। उन्हीं इच्छाओं
को, जिन्हें उन्होंने जन्मों-जन्मों में पूरा करना चाहा था और पूरा नहीं कर
पाए। उन्हीं को वे पुनः पूरा करने में लग जाएंगे। एक वर्तुल की भांति, एक
विसियस सर्कल की भांति, दुष्टचक्र घूमता रहेगा।
कृष्ण जैसे व्यक्ति जानते हुए जन्मते हैं, किसी इच्छा के कारण नहीं, कोई
अंधी इच्छा के कारण नहीं। फिर किसलिए जन्मते होंगे? जब इच्छा न बचे, तो
कोई किसलिए जन्मेगा? जब इच्छा न बचे, तो नए जन्म को धारण करने का कारण क्या
रह जाएगा? इच्छा तो मूर्च्छित-जन्म का कारण है। फिर क्या कारण रहेगा?
अकारण तो कोई पैदा नहीं हो सकता। इसलिए अकारण कोई पैदा होता भी नहीं। लेकिन
जब इच्छा विलीन हो जाती है–और जब इच्छा विलीन हो जाती है तभी–करुणा का
जन्म होता है, कम्पैशन का जन्म होता है।
कृष्ण, बुद्ध या महावीर जैसे व्यक्ति करुणा के कारण पैदा होते हैं। जो
उन्होंने जाना, जो उनके पास है, उसे बांट देने को पैदा होते हैं। लेकिन यह
जन्म कांशस बर्थ, सचेष्ट जन्म है। इसलिए उनकी पिछली मृत्यु जानी हुई होती
है; यह जन्म जाना हुआ होता है। और जो व्यक्ति अपनी एक मृत्यु और एक जन्म को
जान लेता है, उसे अपने समस्त जन्मों की स्मृति वापस उपलब्ध हो जाती है। वह
अपने समस्त जन्मों की अनंत शृंखला को जान लेता है।
गीता दर्शन
ओशो
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