पश्चाताप और पश्चाताप में फर्क है। एक तो पश्चाताप होता है जो
व्यर्थ की चिंता है, तुम लौट लौटकर पीछे देखते हो और सोचते हो ऐसा न किया
होता, वैसा किया होता; ऐसा हो जाता, ऐसा न होता; तो अच्छा होता। यह
पश्चाताप जो है, यह व्यर्थ का रुदन है। जो दूध गिर गया और बिखर गया फर्श
पर, अब उसको इकट्ठा नहीं किया जा सकता। और यह इकट्ठा भी कर लो, तो पीने के
काम का नहीं है। जो गया, गया। उसी घाव को खुजलाते रहना बार बार किसी मूल्य
का नहीं है।
अतीत में कोई बदलाहट नहीं की जा सकती, इसे स्मरण रखो। यह एक बुनियादी
सिद्धात है, अतीत में कोई बदलाहट नहीं की जा सकती। जैसा हो गया, अंतिम रूप
से हो गया। अब इसमें न तो तुम एक लकीर जोड़ सकते, न एक लकीर घटा सकते। अब यह
हमारे हाथ में नहीं रहा। यह बात हमारे हाथ से सरक गयी। यह तीर हमारे हाथ
से निकल गया, इसे अब तरकस में वापस नहीं लौटाया जा सकता। इसलिए इसके लिए
रोने से तो कोई सार नहीं है।
तो इस अर्थ में तो पश्चाताप कभी मत करना, अतीत का चिंतन मत करना।
लेकिन
एक पश्चाताप का और भी अर्थ होता है कि अतीत से सीख ली, अतीत के अनुभव को
निचोड़ा, अतीत से ज्ञान की थोड़ी किरण पायी, जो जो अतीत में हुआ है, उसको ऐसे
ही नहीं हो जाने दिया, जो भी हुआ, उससे कुछ पाठ लिए, उस पाठ के अनुसार आगे
जीवन को गति दी, उस पाठ के अनुसार अगले कदम उठाए। यह छोटी सी कहानी सुनो:
एक सूफी संत थे, बड़े ईश्वरभक्त। पांच दफे नमाज पढ़ने का उनका नियम था। एक
रोज थके मांदे थे, सो गए। जब नमाज का वक्त आ गया तो किसी ने आकर उन्हें
जगाया, हिलाकर कहा, उठो उठो, नमाज का वक्त हो गया है। वे तत्काल ही उठ बैठे
और बड़े कृतज्ञ हुए, कहने लगे, भाई, तुमने मेरा बड़ा काम किया, मेरी इबादत
रह जाती तो क्या होता! अच्छा अपना नाम तो बताओ। उस आदमी ने कहा, अब नाम
रहने दो, उससे झंझट होगी। लेकिन संत ने कहा, कम से कम नाम तो जानूं र
तुम्हें धन्यवाद तो दूं। तो उसने कहा, पूछते ही हो तो कह देता हूं मेरा नाम
इबलीस है।
इबलीस है शैतान का नाम। संत तो हैरान हुए, बोले, इबलीस? शैतान? अरे,
तुम्हारा काम तो लोगों को इबादत से, धर्म से रोकना है, फिर तुम मुझे जगाने
क्यों आए? यह बात तो बड़ी अटपटी है। सुनी नहीं, पढ़ी नहीं, न आंखों देखी, न
कानों सुनी, शास्त्रों में कहीं उल्लेख नहीं कि इबलीस और किसी को जगाता हो
कि उठो उठो, नमाज का वक्त हो गया। तुम्हें हो क्या गया है? क्या तुम्हारा
दिल बदल गया है?
शैतान ने कहा, नहीं भैया, इसमें मेरा ही फायदा है। एक बार पहले भी तुम
ऐसे ही सो गए थे; नमाज का वक्त बीत गया तो मैं बहुत खुश हुआ था, लेकिन जब
तुम जागे तो इतना रोए, इतने दुखी हुए, इतने हृदय से तुमने ईश्वर को पुकारा
और इतनी तुमने कसमें खायी कि अब कभी नहीं सोऊंगा, अब कभी भूल नहीं करूंगा,
अब मुझे क्षमा कर दो। तब से वर्षों बीत गए हैं, तब से तुम सोए नहीं, तब से
तुम नमाज ही नहीं चूके। अब मैंने देखा कि आज तुम फिर सो गए हो, अगर मैं
तुम्हें न जगाऊं तो और कठिनाई होगी, तुम इससे भी कुछ पाठ लोगे। तो मैंने
सोचा एक दफे नमाज पढ़ लो, वही ज्यादा ठीक है। उसमें मेरी कम हानि है।
क्योंकि पिछली दफे तुम चूके, उससे तुम्हें जितना लाभ हुआ, उतना तुमने जितनी
नमाजें जिंदगीभर की थीं उनसे भी न हुआ था।
पश्चाताप पश्चाताप का फर्क है। सिर्फ रोने की ही बात नहीं है, सीखने
की बात है। सीखो तो बड़ा लाभ है; जो भूलें तुमने की हैं, वे सभी भूलें काम
की हो जाती हैं। सभी भूलें सोने की, अगर सीख लो। अगर न सीखो, तो तुमने जो
ठीक भी किया वह भी मिट्टी हो जाता है।
इस गणित को खयाल में लेना। भूल भी सोना हो जाती है, अगर उससे सीख लो। और
गैर भूल भी मिट्टी हो जाती है, अगर कुछ न सीखो। अनुभव तो जिंदगी में सभी
को होते हैं, थोड़े से लोग उनसे सीखते हैं। जो सीखते हैं, वे ज्ञानी हो जाते
हैं। अधिक लोग उनसे सीखते नहीं। अनुभव तो सभी को बराबर होते हैं, अच्छे
के, बुरे के, लेकिन कुछ लोग अनुभवों की राशि लगाकर बैठे रहते हैं, उसकी
माला नहीं बनाते। थोड़े से लोग हैं जो अनुभव के फूलों को सीख के धागे से
पिरोते हैं और माला बना लेते हैं। वे प्रभु के गले में हार बन जाते हैं।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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