कर्म को छोड़ना बहुत कठिन नहीं है। आलसी भी कर्म को छोड़कर बैठ जाते हैं।
और इसलिए, अगर पुराने संन्यास की धारणा ने आलसियों को आकर्षित किया हो, तो
बहुत आश्चर्य नहीं है। और इसलिए, अगर पुराने संन्यास की धारणा को मानने
वाले समाज धीरे-धीरे आलसी हो गए हों, तो भी आश्चर्य नहीं है। जो कुछ भी
नहीं करना चाहते हैं, उनके लिए पुराने संन्यास में बड़ा रस मालूम होता है।
कुछ न करना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है।
इस जगत में कोई भी कुछ नहीं करना चाहता है। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जो कुछ करना चाहता है। लेकिन सारे लोग करते हुए दिखाई पड़ते हैं, इसलिए नहीं कि कर्म में बहुत रस है, बल्कि इसलिए कि फल बिना कर्म के नहीं मिलते हैं। हम कुछ चाहते हैं, जो बिना कर्म के नहीं मिलेगा। अगर यह तय हो कि हमें बिना कर्म किए, जो हम चाहते हैं, वह मिल सकता है, तो हम सभी कर्म छोड़ दें, हम सभी संन्यासी हो जाएं! लेकिन चाह पूरी करनी है, तो कर्म करना पड़ता है। यह मजबूरी है, इसलिए हम कर्म करते हैं।
कृष्ण इससे उलटी बात कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं, कर्म तो तुम करो और फल की आशा छोड़ दो। हम कर सकते हैं आसानी से, कर्म न करें और फल की आशा करें। जो आसान है, वह यह मालूम पड़ता है कि हम कर्म तो न करें और फल की आशा करें। और अगर कोई फल पूरा कर दे, तो हम कर्म छोड़ने को सदा ही तैयार हैं। कृष्ण इससे ठीक उलटी ही बात कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि कर्म तो तुम करो ही, फल की आशा छोड़ दो। यह फल की आशा छूट जाए, तो कृष्ण के अर्थों में संन्यास फलित होगा।
फल की आशा के बिना कर्म कौन कर पाएगा? कर्म करेगा ही कोई क्यों? दौड़ते हैं, इसलिए कि कहीं पहुंच जाएं। चलते हैं, इसलिए कि कोई मंजिल मिल जाए। आकांक्षाएं हैं, इसलिए श्रम करते हैं; सपने हैं, इसलिए संघर्ष करते हैं। कुछ पाने को दूर कोई तारा है, इसलिए जन्मों-जन्मों तक यात्रा करते हैं।
वह तारा तोड़ दो। कृष्ण कहते हैं, वह तारा तोड़ दो। नाव तो खेओ जरूर, लेकिन उस तरफ कोई किनारा है, उसका खयाल छोड़ दो। पहुंचना है कहीं, यह बात छोड़ दो; पहुंचने की चेष्टा जारी रखो।
असंभव मालूम पड़ेगा। अति कठिन मालूम पड़ेगा। फिर नाव किसलिए चलानी है, जब कोई तट पर पहुंचना नहीं!
पर कृष्ण बहुत अदभुत बात कहते हैं। वे यह कहते हैं कि नाव चलाने से कोई तट पर नहीं पहुंचता, जन्मों-जन्मों तक चलकर भी कोई मंजिल पर नहीं पहुंचता, आकांक्षाएं करने से कोई आकांक्षाएं पूरी होती नहीं हैं। लेकिन जो आदमी नाव चलाए और किनारे पर पहुंचने का खयाल छोड़ दे, उसे बीच मझधार भी किनारा बन जाती है। और जो आदमी कल की आशा छोड़ दे और आज कर्म करे, कर्म ही उसका फल बन जाता है, कर्म ही उसका रस बन जाता है। फिर कर्म और फल में समय का व्यवधान नहीं होता। फिर अभी कर्म और अभी फल।
संन्यास जीवन का त्याग नहीं है कृष्ण के अर्थों में, जीवन का परम भोग है।
गीता दर्शन
ओशो
No comments:
Post a Comment