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Friday, February 19, 2016

मौन का अर्थ

 मौन का अर्थ यह नहीं कि होंठ बंद हो गए। मौन का अर्थ है, भीतर भाषा बंद हो गई, भाषा गिर गई। जैसे कोई भाषा ही पता नहीं है। और अगर आदमी स्वस्थ हो, तो जब अकेला हो, उसे भाषा पता नहीं होनी चाहिए। क्योंकि भाषा दूसरे के साथ कम्युनिकेट करने का साधन है, अकेले में भाषा के जानने की जरूरत नहीं है। अगर वह भाषा गिर जाए, तो जो मौन भीतर बनेगा, वह स्वभाव है, वह किसी ने सिखाया नहीं है।


मैं किसी भी भाषा वाले घर में पैदा हो जाऊं, हिंदी बोलूं कि मराठी कि गुजराती, कुछ भी बोलूं, लेकिन जिस दिन मैं मौन में जाऊंगा, उस दिन मेरा मौन न गुजराती होगा, न हिंदी होगा, न मराठी होगा। सिर्फ मौन होगा; वह स्वभाव है।


हम इतने लोग यहां बैठे हैं। अगर हम शब्दों में जीएं, तो हम सब अलग-अलग हैं। और अगर हम मौन में जीएं, तो हम सब एक हैं। अगर इतने बैठे हुए लोग यहां मौन हो जाएं क्षणभर को, तो यहां इतने लोग नहीं, एक ही व्यक्ति रह जाएगा। एक ही! बिकाज लैंग्वेज इज़ दि डिवीजन। भाषा तोड़ती है। मौन तो जोड़ देगा। हम एक ही हो जाएंगे।


और ऐसा ही नहीं कि हम व्यक्तियों से एक हो जाएंगे। भाषा के कारण हम मकान से एक नहीं हो सकते। भाषा के कारण हम वृक्ष से एक नहीं हो सकते। भाषा के कारण हम चांदत्तारों से एक नहीं हो सकते। लेकिन मौन में तो हम उनसे भी एक हो जाएंगे। आखिर मौन में क्या बाधा है कि मैं चांद से बोल लूं! मौन में क्या बाधा है कि चांद से हो जाए बातचीत–बातचीत मुझे कहनी पड़ रही है–कि चांद से हो जाए संवाद, मौन में! भाषा में तो नहीं हो सकता; मौन में हो सकता है।


इसलिए जो लोग गहरे मौन में गए, जैसे महावीर। इसलिए महावीर का जो सर्वाधिक प्रख्यात नाम बन गया, वह बन गया मुनि, महामुनि। मौन में गए। इसलिए आज भी महावीर का संन्यासी जो है, मुनि कहा जाता है, हालांकि मौन में बिलकुल नहीं है।


महा मौन में चले गए। और इसीलिए महावीर कह सके कि वनस्पति को भी चोट मत पहुंचाना। रास्ते पर चलते वक्त कीड़ी भी न दब जाए, इसका खयाल रखना। यह महावीर को पता कैसे चला कि कीड़ी की इतनी चिंता करनी चाहिए!


जो भी आदमी मौन में जाएगा, उसके संबंध चींटी से भी उसी तरह जुड़ जाते हैं, वृक्ष से भी उसी तरह जुड़ जाते हैं, पत्थर से भी उसी तरह जुड़ जाते हैं, जैसे आदमियों से जुड़ते हैं। अब उसके लिए जीवन सर्वव्यापी हो गया। अब सबमें एक का ही विस्तार हो गया। अब यह चींटी नहीं है, जो दब जाएगी, जीवन है। और यह वृक्ष नहीं है, जो कट जाएगा, जीवन है। अब जहां भी कुछ घटता है, वह जीवन पर घटता है। और मौन में होकर जिसने इस विराट जीवन को अनुभव किया, जब भी कहीं कुछ कटता है, तो मैं ही कटता हूं फिर, फिर कोई दूसरा नहीं कटता है।


गीता दर्शन 

ओशो 

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