झेन में उनके पास एक कथन है, सुंदरतम कथनों में से एक : जब कोई व्यक्ति
रहता है संसार में, तो पर्वत पर्वत होते हैं, नदिया नदियां होती हैं। जब
कोई व्यक्ति ध्यान में उतरता है, तब पर्वत फिर पर्वत नहीं रहते, नदियां
नदियां नहीं रहती। हर चीज एक भ्रम और एक अव्यवस्था होती है। लेकिन जब कोई
व्यक्ति उपलब्ध कर लेता है सतोरी को, समाधि को, फिर नदियां नदिया होती हैं
और पर्वत होते हैं पर्वत।
तीन अवस्थाएं होती हैं- पहली में तुम अहंकार के प्रति सुनिश्चित होते
हो, तीसरी में तुम निरहंकार अवस्था में परिपूर्ण निश्चित होते हो। और इन
दोनों के बीच अराजकता की अवस्था है, जब अहंकार की निश्चितता तिरोहित हो गयी
है और जीवन की सुनिश्चितता अभी आयी नहीं। यह एक बहुत ज्यादा संभावनापूर्ण
घड़ी होती है, बहुत गर्भित घड़ी है १ यदि तुम डर जाते हो और वापस मुड़ जाते
हो, तो तुम चूक जाओगे संभावना को।
आगे है सच्ची निश्चितता। वह सच्ची निश्चितता अनिश्चितता के विपरीत नहीं
है। आगे है सच्ची सुरक्षा, लेकिन वह सुरक्षा असुरक्षा के विपरीत नहीं है।
वह सुरक्षा इतनी विशाल होती है कि वह असुरक्षा को समाए रहती है स्वयं के
भीतर ही। वह इतनी विशाल होती है कि वह भयभीत नहीं होती असुरक्षा से। वह
असुरक्षा को सोख लेती है स्वयं में ही, वह सारी विपरीत बातों को समाए रहती
है। इसलिए कोई उसे कह सकता है असुरक्षा और कोई उसे कह सकता है सुरक्षा।
वस्तुत: वह इनमें से कुछ भी नहीं, या फिर दोनों ही है।
यदि तुम अनुभव करते हो कि तुम स्वयं के लिए अजनबी बन गए हो, तो उत्सव
मनाओ इसका, अनुगृहीत अनुभव करो। बहुत विरल, अनूठी होती है यह घड़ी, आनंदित
होओ इससे। जितना ज्यादा तुम आनंदित होते हो:, उतना ज्यादा तुम पाओगे कि
निश्चितता तुम्हारे ज्यादा निकट चली आ रही है, और और तेजी से चली आ रही
है तुम्हारी ओर। यदि तुम उत्सव मना सको तुम्हारे अजनबीपन का, तुम्हारे
उखडाव का, तुम्हारी गृहविहीनता का, तो अचानक तुम पहुंच जाते हो घर: तीसरी
अवस्था आ गयी होती है।
पतंजलि योगसूत्र
ओशो
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