प्रेम एक बहुत गहरी कीमिया है। वह भी कोई पैदा होने के साथ लेकर नहीं
आता। वह भी एक जीवन का संगीत है जिसे खोजना होता है, जिसे निर्मित करना
होता है। छिपा है अनगढ़ पत्थर की भांति, उसे छेनी लेकर निखारना होता है। तब
वह मूर्ति बन पाता है। अनगढ़ पत्थर में मूर्ति छिपी है, लेकिन सभी के लिए
नहीं छिपी है; उसी के लिए छिपी है जो उसे निकाल सके। हम जन्म के साथ प्रेम
लेकर पैदा होते हैं एक पत्थर की भांति, पर फिर जीवन भर उसे निखारना पड़ता
है। और धन्यभागी हैं वे लोग, अगर जीवन के अंत तक भी उनकी प्रेम की मूर्ति
निखर आए। और जब हमारे पास हो तब हम दे सकते हैं।
पर सब लोग एक-दूसरे को प्रेम दे रहे हैं बिना यह सवाल उठाए कि वह हमारे
पास है। इसलिए सब देते हैं, और किसी को मिलता नहीं। करीब-करीब सब दे रहे
हैं, और जरूरत से ज्यादा दे रहे हैं, और सब यह सोचते हैं कि हमारे जैसा
देने वाला कोई भी नहीं है, लेकिन किसी को मिलता नहीं। मेरे पास लोग आते
हैं, वे कहते हैं, हम प्रेम देते हैं। मेरे पास वह आदमी आता ही नहीं जो
कहता है, हमें प्रेम मिलता है। आप देते हैं तो किसी को मिलना चाहिए। मिलने
में ही प्रमाण होगा। या फिर आप खाली हाथ देने का सिर्फ स्वांग कर रहे हैं।
शायद अपने को धोखा दे रहे हैं कि आप दे रहे हैं।
सच तो यह है कि सब लेना चाहते हैं। सब लेने की कोशिश कर रहे हैं, और
देना केवल लेने के लिए आयोजन है। लेकिन देने के लिए किसी के पास कुछ भी
नहीं है। यह भी समझ लेने जैसा है कि जब तक आपके जीवन में प्रेम को मांगने
की वासना है, जब तक आप पाते हैं कि मुझे कोई प्रेम दे, तब तक आप देने में
समर्थ न हो सकेंगे। क्योंकि आप खुद भिखमंगे हैं। देने के लिए सम्राट होना
जरूरी है।
यह बड़ी उलटी बात है। इस जगत में केवल वे ही लोग प्रेम दे पाते हैं जो
प्रेम मांगते नहीं, जिनके लिए प्रेम की कोई जरूरत न रही। और जिनको इस जगत
में प्रेम की जरूरत है, जो मांगते हैं, जो चौबीस घंटे इसी आशा में रहते हैं
कि कोई प्रेम देगा और उनके जीवन में एक पुलक, एक नृत्य आ जाएगा, वे दे
नहीं सकते। क्योंकि उनके पास है नहीं। मैं निरंतर कहता हूं, हमारी हालत दो
भिखमंगों जैसी है, जो एक-दूसरे के सामने भिक्षा-पात्र फैलाए खड़े हैं। उनमें
कोई भी देने वाला नहीं है, वे दोनों लेने वाले हैं। दोनों दुखी होंगे।
सारा जगत दुखी है।
ताओ उपनिषद
ओशो
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