इतनी खोज है! सभी की खोज है। लेकिन मिलन तो बहुत थोड़ेसे लोगों का हो
पाता है। अंगुलियों पर गिने जा सकें, ऐसे लोग उसके मंदिर में प्रवेश कर
पाते हैं। मामला क्या है? इतने लोग खोजते हैं, सभी खोजते हैं फिर यह खोज
थोड़े से लोगों की क्यों पूरी होती है? उसके कारण को ठीक से समझ लेना जरूरी
है, क्योंकि वही कारण तुम्हें भी बाधा डालेगा। उसे अगर न समझा तो तुम खोजते
भी रहोगे और पा भी न सकोगे। और वह कारण बड़ा सीधा साफ है। लेकिन कई बार
सीधी साफ बातें दिखाई नहीं पड़तीं। कारण है कि लोग गलत मनोदशा में उसे खोजते
हैं: दुख में तो उसकी याद करते हैं, और सुख में उसे भूल जाते हैं। बस यही
सूत्र है इतने लोग नहीं उसे उपलब्ध हो पाते उसका।
दुख का स्वभाव परमात्मा के स्वभाव से बिलकुल मेल नहीं खाता। दुख तो उससे
ठीक विपरीत दशा है। वह है परम आनंद, सच्चिदानंद। दुख में तुम उसे खोजते
हो। दुख का अर्थ है कि तुम पीठ उसकी तरफ किए हो, और खोज रहे हो। कैसे तुम
उसे पा सकोगे? जैसे कोई सूरज की तरफ पीठ कर ले और फिर खोजने निकल जाए खोजे
बहुत, चले बहुत लेकिन सूरज के दर्शन न हों; क्योंकि पहले ही पीठ कर ली।
दुख है परमात्मा की तरफ पीठ की अवस्था। दुख में तुम हो ही इसलिए कि
तुमने पीठ कर रखी है। और उसी वक्त जब तुम्हारी पीठ परमात्मा की तरफ होती
है, तभी तुम्हें उसकी याद आती है। जब तुम सुख में होते हो तब तुम उसे भूल
जाते हो।
परमात्मा सुख भी नहीं है, दुख भी नहीं है; लेकिन परमात्मा से दुख बहुत
दूर है, सुख थोड़ा निकट है। दुख है परमात्मा की तरफ पीठ करके खड़े होना, और
सुख है परमात्मा की तरफ मुंह करके खड़े होना। जिन्होंने सुख में खोजा,
उन्होंने पाया; जिन्होंने दुख में खोजा, वे भटके। दुख का तालमेल नहीं है
परमात्मा से। वहां तुम रोते हुए न जा सकोगे। वह द्वार सदा रोती हुई आंखों
के लिए बंद है। वहां रुदन का प्रवेश नहीं; नहीं तो अपने रोने को उसके
प्राणों में भी गुंजा दोगे।
अस्तित्व के द्वार बंद हैं उनके लिए, जो दुखी हैं; अस्तित्व अपने द्वार
खोलता है केवल उन्हीं के लिए जो नाचते, गीत गाते, गुनगुनाते आते हैं।
अस्तित्व उत्सव है; वहां मरघटी सूरत लेकर नहीं जाया जा सकता। अस्तित्व परम
जीवन है; वहां उदासी का कोई काम नहीं है।
सुनो भई साधो
ओशो
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