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Friday, February 19, 2016

परित्राणाय साधुनाम ,विनाशायच दुष्कृताम

मैं एक सभा में था। एक बड़े साधु करपात्री जी बोले। बोलने के बाद उन्होंने जनता से कुछ नारे लगवाए। उन्होंने पहला नारा लगवाया, धर्म की जय हो। तीन बार लोग चिल्लाए, धर्म की जय हो। फिर पीछे उन्होंने नारा लगवाया, अधर्म का नाश हो।

मैंने उनके साथ बैठे साधु से कहा, जब धर्म की जय हो गई, तो अधर्म बचेगा कैसे? धर्म की जय हो गई, अधर्म का नाश हो गया। यह तो ऐसे ही हुआ कि लोगों से हम कहें कि दीए जलाओ, और फिर कहें, अंधेरा हटाओ। दोनों बातें बेमानी हैं। दीया जल गया, तो बात खतम हो गई। जब धर्म की जय हो गई तीन बार, अब कृपा करके अधर्म का नाश मत करवाएं। अधर्म नाश हो गया। और अगर धर्म की जय से नाश नहीं हुआ, तो अधर्म के नाश के नारे लगाने से नाश होने वाला नहीं है।
 
धर्म नहीं होता, क्योंकि धर्म के लिए भी पृथ्वी पर पैर रखने की जगह चाहिए। धर्म को भी पृथ्वी पर पैर रखने की जगह चाहिए। वह जगह साधुओं के हृदय हैं। अगर साधु न हों, तो धर्म को पैर रखने की जगह नहीं मिलती। धर्म तब अटक जाता है, त्रिशंकु हो जाता है, आकाश में भटक जाता है।


धर्म को पैर रखने के लिए साधुओं के हृदय चाहिए, अधर्म को पैर रखने के लिए असाधुओं के हृदय चाहिए। अधर्म भी खड़ा नहीं हो सकता; अधर्म भी हमारे सहारे खड़ा होता है, हमारे सहारे प्रकट होता है। धर्म भी हमारे सहारे प्रकट होता है। साधु हों, तो धर्म होता है, उसके लिए सहारे होते हैं। असाधु हों, अधर्म होता है, उसके लिए सहारे होते हैं। और जब अधर्म होता है, दुष्ट होते हैं; साधु नहीं होते, धर्म नहीं होता; तो कृष्ण कहते हैं कि मैं, अर्थात कोई भी चेतना जो अपनी सब वासनाओं से मुक्त हो जाती है, लौट आती है करुणावश–साधुओं के उद्धार के लिए, असाधुओं के विनाश के लिए।


 गीता दर्शन 

ओशो 

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