तुमने कभी देखा! एक सीधी लकड़ी के डंडे को पानी में डाला और तुम तब चकित
होकर देखोगे : पानी में पहुंचते ही डंडा तिरछा दिखाई पड़ने लगता है! तिरछा
हो नहीं जाता। खींचकर देखो सीधा का सीधा है! फिर पानी में डालो, फिर तिरछा
दिखाई पड़ने लगता है। पानी उतनी विकृति तो ले आता है सीधा डंडा तिरछा हो
जाता है।
बुद्धों के सीधे सीधे वचन भी तुम्हारे भीतर जाकर बहुत तिरछे हो जाते हैं आड़े हो जाते हैं; कुछ के कुछ हो जाते हैं!
तो शास्त्रों की बात तो दोयम है।
‘मध्यम शास्त्रचिन्तनम अधमा तंत्रचिता।’ और उससे भी अधम है तंत्र,
मंत्र, यंत्र की चिंता, विधि विधान, यज्ञ हवनकुंड, पूजा पत्री! यह धर्म
के नाम पर जो क्रियाकाण्ड चलते है उन सबका नाम तंत्र। यह तो बिलकुल ही गयी
बीती बात हो गयी। यह तो बिलकुल तृतीय कोटि की बात हो गयी। लेकिन दुनिया इस
तीसरी कोटि में उलझी है।
कोई सत्यनारायण की कथा करवा रहा है! कोई विश्व शांति के लिए यज्ञ करवा रहा है।
अभी किसी तांत्रिक ने चंडीगढ़ में विश्वशाति के लिए यज्ञ करवाया। और
यज्ञ हो जाने के बाद घोषणा कर दी कि यज्ञ सफल हुआ; विश्व में शांति हो गयी!
और पंद्रह दिन बाद फिर दूसरा यज्ञ दिल्ली में करवाने लगे वे। जब खबर मुझे
मिली, तो मैंने कहा, अब किसलिए करवा रहे हो! दुनिया में तो शांति हो चुकी!
वह तो चंडीगढ़ में यह जब हुआ तभी हो गयी। अब यह कौनसी दूसरी दुनिया है,
जिसमें शांति करवानी है! मगर फिर शांति करवा रहे हैं वे।
और यहीं, खतम नहीं हो जायेगा। उन्होंने कसम खायी है कि वे एक सौ बीस
यज्ञ करवाकर रहेंगे। मतलब एक सौ बीस बार दुनिया में शांति करवाकर रहोगे!
बहुत ज्यादा शांति हो जायेगी! आदमी को जिंदा रहने दोगे कि मार ही डालोगे?
मरघट हो जायेगा! एक सौ बीस बार शांति होती ही चली गयी, होती ही चली गयी तो
लोगों की सांसें निकल जायेंगी! शोरगुल ही बंद हो जायेगा! बोलचाल ही खो
जायेगा!
मगर ये क्रियाकांड हैं।
मैत्रेयी उपनिषद् का यह वचन कहता है, ‘अधमा तंत्रचिता अधम है तंत्र की चिंता।’ अब तो ‘चिंतन’ भी न रहा… ‘चिंता’ हो गयी!
पहला तो था अचिंत्य; तत्व का अनुभव; शास्त्र का ‘चिंतन’ होता है वह नीचे
गिरना हुआ। और अब तो बात और बिगड़ गयी। अब तो चिंतन से भी गिरे। अब तो
चिंतन भी न बचा। अब तो चिंता हो गयी! अब तो परेशानी और बेचैनी आ गयी। अब तो
लोभ मोह का व्यापार शुरू हुआ। यह पा लूं वह पा लूं! गंडे ताबीज की दुनिया आ
गयी।
‘और तीर्थों में भटकना अधम से भी अधम च तीर्थ भ्रात्त्वधमाधमा।’और
तीर्थो में भटकने को तो मैत्रेयी उपनिषद् कहता है, यह तो अधम से भी अधम!
इसके पार तो गिरना ही नहीं हो सकता।
कोई काशी जा रहा है! कोई काबा जा रहा है! कोई कैलाश कोई गिरनार! क्या
पागलपन है? परमात्मा भीतर बैठा है, और तुम कहां जा रहे! जिसे तुम खोजने
निकले हो, वह खोजनेवाले के भीतर छिपा है। और जब तक तुम उसे कहीं और खोजते
रहोगे खोते रहोगे। जिस दिन सब खोज छोड दोगे, और अपने भीतर ठहरोगे अनहद में
विश्राम करोगे, उस क्षण पा लोगे।
खोया तो उसे है ही नहीं। वह तो तुम्हारे भीतर मौजूद ही है। एक क्षण को
नहीं खोया है। सिर्फ भूल गए हो। विस्मरण किया है। स्मरण भर की कोई आवश्यकता
है। और यह स्मरण शायद किसी सद्गुरु के सत्संग में तो मिल जाये, लेकिन
तीर्थों में क्या है?
तीर्थ बने कैसे? कभी कोई सद्गुरु वहां था, तो तीर्थ बन गए। लेकिन
सद्गुरु तो जा चुका कभी का! बुद्ध कभी बोधगया में थे, तो तीर्थ बन गए। अब
सारी दुनिया से बौद्ध आते हैं बोधगया की यात्रा करने। क्या पागलपन है!
अनहद में बिसराम
ओशो
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