लाओत्से पूछ रहा है, मनुष्य किसे अधिक प्रेम करता है, सुयश को, या अपनी
निजता को? दूसरों की आंखों में प्रतिष्ठा को, मान को, सम्मान को, या अपने
होने को? किस बात को ज्यादा प्रेम करता है?
दूसरे मेरे संबंध में क्या कहते हैं, यह मेरे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है?
या मैं क्या हूं, यह मेरे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है? दूसरे भला मानें तो
मैं भला नहीं हो जाता; दूसरे बुरा मानें तो मैं बुरा नहीं हो जाता। मेरा
होना दूसरों की मान्यताओं से बड़ी पृथक बात है। मैं दूसरों की मान्यताओं को
मूल्य देता हूं सिर्फ इसलिए कि मुझे मेरी निजता का कोई पता नहीं है। और
जिसको मैं अपनी निजता मान रहा हूं वह केवल दूसरों से मिला हुआ अहंकार है;
दूसरों ने जो कुछ मेरे संबंध में कहा है उसी का संग्रह है। इसलिए बड़ा डर
होता है। अगर आप साधु हैं तो आपको डर होता है कि कोई असाधु न कह दे। इस भय
से न मालूम कितने लोग साधु बने रहते हैं कि कोई असाधु न कह दे।
लेकिन उनकी साधुता कैसी और कितनी कीमत की है? इसका कोई भी मूल्य नहीं।
नपुंसक है ऐसी साधुता जो इससे डरती हो कि कोई असाधु न कह दे। उधार है,
मांगी हुई है; किसी और पर निर्भर है। इस साधुता की जड़ें अपने भीतर नहीं
हैं। यह साधुता दूसरों की आंखों में बनाए हुए प्रतिबिंब का जोड़ है; बासी
है, मुर्दा है। लेकिन साधु जितने डरते हैं कि कोई असाधु न कह दे, उतने
असाधु भी नहीं डरते।
मनसविद कहते हैं कि चाहे आप साधु हों या असाधु, अच्छे हों या बुरे, आपकी
नजर अगर दूसरे पर ही लगी हुई है, कि दूसरे क्या कहते हैं, तो आप अपने
स्वयं से, अपनी सत्ता से अपरिचित ही रह जाएंगे। और लाओत्से पूछता है, प्रेम
किस बात का है लोगों के विचारों का या अपने शुद्ध अस्तित्व का? क्योंकि इन
दोनों बातों पर निर्भर है आपके जीवन की दिशा।
ताओ उपनिषद
ओशो
No comments:
Post a Comment