केंद्र को, मूल को बदले बिना परिधि को बदलने का प्रयास केवल एक निरर्थक
स्वप्न है। वह प्रयास मात्र व्यर्थ ही नहीं, घातक भी है। वह आत्महिंसा है।
ऐसी चेष्टा अपने ऊपर जबरदस्ती आरोपण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। इस
दमन में समाज की उपयोगिता तो सध जाती है, पर व्यक्ति टूट जाता और खंडित हो
जाता है। उसके भीतर द्वैत पैदा हो जाता है। उसका व्यक्तित्व सहजता और सरलता
खोकर एक अंतर्द्वंद्व, कांफ्लिक्ट बन जाता है एक सतत संघर्ष, एक अंतहीन
अंतर्युद्ध जिसके अंत में विजय कभी नहीं आती है। यह व्यक्ति के मूल्य पर
सामाजिक उपयोगिता को पूरा कर लेना है। इसे मैं सामाजिक हिंसा कहता हूं।
मनुष्य के आचरण में जो कुछ प्रकट होता है, वह महत्वपूर्ण नहीं है।
महत्वपूर्ण अंतस के वे कारण हैं, जिनकी वजह से वह प्रकट होता है। आचरण अंतस
की सूचना है, मूल वह नहीं है। आचरण अंतस का बाह्य प्रकाशन है। और वे लोग
नासमझ हैं, जो प्रकाशक को बदले बिना प्रकाशन को बदलने की आकांक्षा करते
हैं। उस तरह की साधना व्यर्थ है। वह कभी फलवती नहीं होगी। वह ऐसे ही है
जैसे कोई किसी वृक्ष की शाखाओं को छांट कर उसे नष्ट करना चाहता हो। उससे
वृक्ष नष्ट तो नहीं और सघन अवश्य हो सकता है। वृक्ष के प्राण शाखाओं में
नही हैं, वे तो जड़ों में हैं, उन जड़ों में जो कि भूमि के अंतर्गत हैं और
दिखाई नहीं पड़ती हैं। उस जड़ों की प्रसुप्त आकांक्षाएं ही वृक्ष के रूप में
प्रकट हुई हैं। उन जड़ों की आकांक्षाओं और वासनाओं ने ही शाखाओं का रूप लिया
है। शाखाओं के छांटने से क्या होगा? वस्तुत: ही यदि जीवन क्रांति चाहते
हैं, तो जड़ों तक चलना जरूरी है।
साधनापथ
ओशो
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