सूत्र है- ‘रसो वै सः।’सीधा साधा अर्थ है : ‘वह रसरूप है।’ लेकिन अनुवाद
में तुम देखते हो फर्क हो गया: ‘भगवान रसरूप है।’ ‘वह' तत्काल भगवान हो
गया! वह! का मजा और भगवान में बात बिगड़ गयी; वह न रही। क्योंकि
भगवान का अर्थ हो गया व्यक्ति।’वह’ तो निवैंयक्तिक सम्बोधन था। भगवान का
अर्थ हो गया राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर-व्यक्ति। व्यक्ति ही भगवान हो सकता
है। जब भी हम ‘ भगवान’ शब्द का उपयोग करते हैं, तो वह व्यक्तिवाची हो जाता
है।
कृष्ण को भगवान कहो-ठीक। बुद्ध को भगवान कहो -ठीक। ये व्यक्ति हैं। और इन व्यक्तियों ने रस पिया है। इन व्यक्तियों ने ‘वह’ पिया है, इसलिए इनको भगवान कह सकते हैं।’उसको’ जिसने पिया, वह भगवान। लेकिन उसको भगवान मत कहो। उसको भगवान कहने से आकार दे दिया, रूप दे दिया। और वह तो सभी आकारों में समाया हुआ है; निराकार है। वह तो निर्गुण .है, सगुण नहीं। वह तो सभी आकृतियों में है, इसलिए उसकी आकृति नहीं हो सकती।
‘भगवान’ कहा कि मुश्किल हो गयी शुरू। भगवान कहते ही तत्क्षण तुम्हारी धारणाएं जो भगवान की हैं किसी के चतुर्भुजी भगवान हैं; किसी के त्रिमुखी भगवान हैं; किसी के भगवान के हजार हाथ हैं! किसी के भगवान का कोई रूप है; किसी के भगवान का कोई रूप है! किसी के भगवान गणेशजी हैं; हाथी की सूंड लगी हुई है! किसी के भगवान जी हनुमानजी हैं!
बंदर भी हंसते होंगे, कि हम ही भले, कि किसी आदमी की पूजा तो नहीं करते! ये आदमियों को क्या हो गया है! कि बंदरों की पूजा कर रहे हैं! हाथी भी चुपचाप मुस्कुराते होंगे कि ‘वाह’! हम ही भले, कि आदमी मिल जाये अकेले में, तो वे पटक ना दें उसको कि रास्ते पर लगा दें! हम किसी आदमी की पूजा नहीं करते! मगर यह हाथी रूपधारी गणेशजी की पूजा हो रही है! ‘जय गणेश, जय गणेश’ का गुंजार चल रहा है! गणेशोत्सव मनाये जा रहे हैं! आदमी अद्भुत है! वह कोई न कोई रूप देना चाहता है। कोई न कोई रंग भरना चाहता है। क्यों?
तुम्हारा मन निराकार में जाने से डरता है।
जिसने यह भी अनुवाद किया होगा, वह निराकार से घबड़ाया हुआ है। और शायद उसे पता भी न हो कि उसने फर्क कर दिया। ’रसो वै सः ‘तो सीधा साधा शब्द है। मैं तो संस्कृत जानता नहीं, मगर यह तो सीधी सीधी बात है। इसके लिए कुछ संस्कृत जानने की जरूरत नहीं है। इसमें ‘ भगवान’ कहीं आता नहीं शब्द।’वह रसरूप है।’ यह सूत्र गजब का है। लेकिन जैसे ही तुमने कहा ’भगवान रस रूप है’, बात बिगाड़ दी। भगवान कैसे रसरूप हो सकता है! भगवत्ता रसरूप हो सकती है। मगर ‘भगवत्ता’ फिर व्यक्ति से मुक्त हो गयी। इसलिए मैं तुमसे कहना चाहता हूं : भगवान तो हमने उन लोगों को कहा है, जिन्होंने भगवत्ता को चखा और अनुभव किया है। इसलिए बुद्ध को भगवान कहो ठीक। महावीर को भगवान कहो ठीक। जीसस को भगवान कहो ठीक। कबीर को, नानक को भगवान कहो ठीक।
मगर उस विराट को मत सीमा में बाधो। उसमें तो सब बुद्ध खो जाते हैं, सब महावीर खो जाते हैं, सब कृष्ण और सब क्राइस्ट खो जाते हैं। वह तो अनंत है। ये तो सब उसकी किरणें हैं; एक एक किरणें। तुम उसे किरणों में मत बांधो। उसकी कोई सीमा नहीं है।
जो बोले तो हरिकथा
ओशो
कृष्ण को भगवान कहो-ठीक। बुद्ध को भगवान कहो -ठीक। ये व्यक्ति हैं। और इन व्यक्तियों ने रस पिया है। इन व्यक्तियों ने ‘वह’ पिया है, इसलिए इनको भगवान कह सकते हैं।’उसको’ जिसने पिया, वह भगवान। लेकिन उसको भगवान मत कहो। उसको भगवान कहने से आकार दे दिया, रूप दे दिया। और वह तो सभी आकारों में समाया हुआ है; निराकार है। वह तो निर्गुण .है, सगुण नहीं। वह तो सभी आकृतियों में है, इसलिए उसकी आकृति नहीं हो सकती।
‘भगवान’ कहा कि मुश्किल हो गयी शुरू। भगवान कहते ही तत्क्षण तुम्हारी धारणाएं जो भगवान की हैं किसी के चतुर्भुजी भगवान हैं; किसी के त्रिमुखी भगवान हैं; किसी के भगवान के हजार हाथ हैं! किसी के भगवान का कोई रूप है; किसी के भगवान का कोई रूप है! किसी के भगवान गणेशजी हैं; हाथी की सूंड लगी हुई है! किसी के भगवान जी हनुमानजी हैं!
बंदर भी हंसते होंगे, कि हम ही भले, कि किसी आदमी की पूजा तो नहीं करते! ये आदमियों को क्या हो गया है! कि बंदरों की पूजा कर रहे हैं! हाथी भी चुपचाप मुस्कुराते होंगे कि ‘वाह’! हम ही भले, कि आदमी मिल जाये अकेले में, तो वे पटक ना दें उसको कि रास्ते पर लगा दें! हम किसी आदमी की पूजा नहीं करते! मगर यह हाथी रूपधारी गणेशजी की पूजा हो रही है! ‘जय गणेश, जय गणेश’ का गुंजार चल रहा है! गणेशोत्सव मनाये जा रहे हैं! आदमी अद्भुत है! वह कोई न कोई रूप देना चाहता है। कोई न कोई रंग भरना चाहता है। क्यों?
तुम्हारा मन निराकार में जाने से डरता है।
जिसने यह भी अनुवाद किया होगा, वह निराकार से घबड़ाया हुआ है। और शायद उसे पता भी न हो कि उसने फर्क कर दिया। ’रसो वै सः ‘तो सीधा साधा शब्द है। मैं तो संस्कृत जानता नहीं, मगर यह तो सीधी सीधी बात है। इसके लिए कुछ संस्कृत जानने की जरूरत नहीं है। इसमें ‘ भगवान’ कहीं आता नहीं शब्द।’वह रसरूप है।’ यह सूत्र गजब का है। लेकिन जैसे ही तुमने कहा ’भगवान रस रूप है’, बात बिगाड़ दी। भगवान कैसे रसरूप हो सकता है! भगवत्ता रसरूप हो सकती है। मगर ‘भगवत्ता’ फिर व्यक्ति से मुक्त हो गयी। इसलिए मैं तुमसे कहना चाहता हूं : भगवान तो हमने उन लोगों को कहा है, जिन्होंने भगवत्ता को चखा और अनुभव किया है। इसलिए बुद्ध को भगवान कहो ठीक। महावीर को भगवान कहो ठीक। जीसस को भगवान कहो ठीक। कबीर को, नानक को भगवान कहो ठीक।
मगर उस विराट को मत सीमा में बाधो। उसमें तो सब बुद्ध खो जाते हैं, सब महावीर खो जाते हैं, सब कृष्ण और सब क्राइस्ट खो जाते हैं। वह तो अनंत है। ये तो सब उसकी किरणें हैं; एक एक किरणें। तुम उसे किरणों में मत बांधो। उसकी कोई सीमा नहीं है।
जो बोले तो हरिकथा
ओशो
वह का अर्थ ब्रह्म है , निराकार ब्रह्म। ओशो भटके भोगी इसे क्या समझें।
ReplyDeleteउसकी किरणे हैं, किसकी ?टॉर्च की या बल्ब की या सूर्य की।कोई साकार है' वह "ज्योतिपूंज है वही कृष्ण है
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