भेड़ें भीड़ में चलती हैं। शायद इसीलिए भेड़ें कहलाती हैं: भीड़ में चलती हैं।
भेड़ मत बनो, सिंह बनो। सिंहो के नहीं लेहड़े! सिंहों की भीड़ नहीं होती।
सिंह अकेला चलता है। लेकिन कभी कभी सिंह को भी भूल जाता है कि मैं सिंह
हूं। ऐसा हुआ एक बार।
एक सिंहनी ने जन्म दिया बच्चे को। छलांग लगा रही थी एक पहाड़ी से कि बीच
में ही बच्चे का जन्म हो गया। वह तो छलांग लगाकर चली भी गई। बच्चा भेड़ों की
एक भीड़ में गिर गया। भेड़ें गुजरती थीं नीचे से। बच्चा उन्हीं में बड़ा हुआ।
ऊंचा उठ गया भेड़ों से बहुत। सिंह ही था लेकिन घास पात चरता। शाकाहारी!
शुद्ध शाकाहारी! भेड़ों जैसा ही मिमियाता, रोता। जिनके साथ रहा वैसा ही हो
गया। हिंदू घर में पैदा हुए हिंदू हो गए। मुसलमान घर में पैदा हुए, मुसलमान
हो गए। अब सिंह का बच्चा भी क्या करे बेचारा! भेड़ों के घर में पड़ गया,
उन्हीं का धर्म सीखा। उन्हीं की किताब पढ़ी, उन्हीं की भाषा सीखा। उन्हीं का
डर भी सीख गया। अगर कोई सिंह की गर्जना होती, भेड़ें भागतीं वह भी भागता;
जान लेकर भागता। उसे याद ही न आयी कभी कि मैं सिंह हूं। आती भी कैसे? किसी
सिंह का कभी सामना भी न हुआ।
एक दिन अड़चन ऐसी हो गई। एक बूढ़े सिंह ने हमला किया भेड़ों पर। वह तो हमला
करके चकित हो गया। जब उसने देखा कि एक सिंह भेड़ों के बीच में घरस पसर भागा
जा रहा है मिमियाता, रिरियाता, रोता। बूढ़े सिंह को तो भूल ही गई अपनी भूख।
भेड़ों को पकड़ने की तो बात ही छोड़ दी उसने। उसको तो यह चमत्कार समझ में
नहीं आया कि यह हो क्या रहा है। भेड़ें भी उससे घसर पसर चल रही हैं। कोई डरा
हुआ नहीं है। वह अलग ऊपर उठा दिख रहा है। सिंह सिंह है।
बूढ़ा सिंह भागा, बामुश्किल पकड़ पाया उस सिंह को। जवान सिंह था लेकिन पकड़
ही लिया बूढ़े ने। रोने लगा, रिरियाने लगा जवान सिंह। माफी मांगने लगा :
मुझे छोड़ दो, मुझे जाने दो। मुझे मेरे साथियों के साथ जाने दो।
मगर बूढ़े ने भी जिद की। उसे पकड़कर नदी के किनारे ले गया। कहा, झांक! देख
अपने दोनों चेहरे। दोनों झुके, एक क्षण में क्रांति हो गई। जवान सिंह ने
नीचे देखा कि मैं तो सिंह हूं। ठीक बूढ़े सिंह जैसा मेरा भी चेहरा है। वही
मेरा रूप, वही मेरा ढंग। एक क्षण में हुंकार निकल गई। पहाड़ कंप गए ऐसी
हुंकार! क्योंकि जन्म भर की दबी हुई हुंकार थी; प्रगाढ़ होकर निकली होगी।
बूढ़े सिंह ने कहा, अब तू जान। मेरा काम पूरा हो गया।
इतना ही काम गुरु का है, इससे ज्यादा नहीं। कि तुम्हें झुकाकर दिखा दे
कि जैसे हो वैसा ही मैं हूं, मैं जैसा हूं वैसे ही तुम हो। स्वरूपतः हम
भिन्न नहीं हैं। तुम सिंह हो और तुम्हारी हुंकार पैदा हो जाए, बस काम पूरा
हो गया। फिर तुम चलोगे अपनी राह। फिर तुम अपने ही पगों से अपनी राह बनाओगे।
नाम सुमीर मन बाँवरे
ओशो
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