मुल्ला नसरुद्दीन युद्ध के दिनों में सेना में भर्ती हुआ था। उसका नया शिक्षण चल रहा था। और उसके कैप्टन ने एक दिन उससे पूछा कि नसरुद्दीन, जब
तुम बंदूक साफ करते हो, तो सबसे पहले क्या करते हो? बंदूक साफ करने के
पहले सबसे पहला काम क्या है?
नसरुद्दीन ने कहा, “सबसे पहला काम, पहले मैं नंबर देखता हूं।’उस कैप्टन ने कहा कि नंबर से सफाई का क्या संबंध? नसरुद्दीन ने कहा, “जस्ट टु बी श्योर दैट दिस इज माइ ओन, आइ एम नाट क्लीनिंग सम बडी एल्पस,–यह पक्का करने के लिए कि बंदूक अपनी ही है, किसी और की बंदूक साफ नहीं कर रहे हैं।
यह जो नसरुद्दीन कह रहा है, बड़ी कीमत की बात कह रहा है। जिंदगी में करीब-करीब हम दूसरों की बंदूकें साफ करते रहते हैं, अपनी बंदूक तो गंदी ही रह जाती है। दूसरों की साफ करने के कारण फुर्सत ही नहीं मिलती कि अपने पर ध्यान चला जाये। जो व्यक्ति भी उत्तेजनाओं में रसलीन है, वह दूसरों की बंदूकें साफ करने में जीवन बिता देता है। दूसरों को ठीक करने में, दूसरों को सुधारने में, दूसरों को सुंदर बनाने में, दूसरों को मित्र बनाने में, दूसरों को अपने निकट लाने में, दूसरों का भोग करने में–पर सारा जीवन दूसरे पर लगा रहता है। और दूसरे काफी हैं! दूसरों का कोई अंत नहीं है।
सार्त्र ने एक अदभुत बात कही है। कहा है कि अदर इज द हेल–दूसरा नरक है। बात थोड़ी सही है। हम अपना नरक दूसरे के ही माध्यम से पैदा करते हैं। आप खुद अपने नरक को देखें। आदमी-आदमी का अपना-अपना नरक है। हर आदमी अपने-अपने नरक में जी रहा है। मुसकराहटें तो ऊपर हैं और धोखे की हैं, और चिपकायी गयी हैं, पेंटेड हैं–भीतर नरक है। और हर आदमी अपने-अपने नरक में जी रहा है; लेकिन वह नरक आप अकेले पैदा नहीं कर सकते हैं; उसके लिए आपको दूसरों की जरूरत है। दूसरों के बिना नरक पैदा नहीं हो सकता।
थोड़ा सोचें, क्या आप अकेले नरक पैदा कर सकते हैं? दूसरों के बिना नरक पैदा नहीं हो सकता। लेकिन, अगर यह सच है कि दूसरों के बिना नरक पैदा नहीं हो सकता, तो हम दूसरों के पीछे इतने पागल क्यों हैं?
क्योंकि यह आशा बंधी है, कि दूसरों के बिना स्वर्ग भी पैदा नहीं हो सकता। दूसरे के द्वारा स्वर्ग पैदा हो सकता है, इसी कोशिश में तो हम नरक पैदा कर लेते हैं। स्वर्ग का स्वप्न नरक को जन्म देता है। सब नरकों के द्वार पर लिखा है, स्वर्ग। तो जिस दरवाजे पर आप स्वर्ग लिखा देखें, जरा सोचकर प्रवेश करना, क्योंकि नरक बनानेवाले काफी कुशल हैं। वे अपने दरवाजे पर नरक नहीं लिखते, फिर कोई प्रवेश ही नहीं करेगा। नरक के दरवाजे पर सदा स्वर्ग लिखा होता है–वह दरवाजे पर ही होता है। भीतर जाकर, जैसे-जैसे भीतर प्रवेश करते हैं, वैसे-वैसे प्रगट होने लगता है।
दूसरे से जो स्वर्ग की आशा करता है, दूसरे के द्वारा उसका नरक निर्मित हो जायेगा। सार्त्र ठीक कहता है कि दि अदर इज द हेल। पर सार्त्र ने कहीं भी यह उल्लेख नहीं किया कि दूसरा नरक क्यों है। वह दूसरे के कारण नरक नहीं है। दूसरे में स्वर्ग की वासना ही नरक का जन्म बनती है। तो बहुत गहरे में देखने पर मेरी वासना ही, कि दूसरे से मैं स्वर्ग बना लूं, नरक का कारण होती है। और जो व्यक्ति दूसरे में उलझा है, वह सदा कंपित रहेगा।
आपने कभी देखा कि आपके जितने कंपन हैं, वे दूसरे के संबंध में होते हैं? क्रोध के, प्रेम के, घृणा के, मोह के, लोभ के–सब दूसरे के संबंध में होते हैं। थोड़ी देर को सोचें कि आप इस पृथ्वी पर अकेले रह गये हैं, क्या आपके भीतर कोई कंपन रह जायेगा? सारा संसार अचानक खो गया, आप अकेले हैं, तो कोई कंपन नहीं रह जायेगा। क्योंकि कंपन के लिए दूसरे से संबंधित होना जरूरी है; दूसरे और मेरे बीच वासना का सेतु बनना जरूरी है, तब कंपन होगा।
आदमी जब गहन भीतर डूबता है आंख बंद करके, बाहर को भूल जाता है–तो वह ऐसे ही हो जाता है, जैसे पृथ्वी पर अकेला है; जैसे और कोई भी न रहा। सब होंगे–लेकिन जैसे नहीं रहे; मैं अकेला हो गया। इस अकेलेपन में शैलेशी अवस्था पैदा होती है। इस अकेलेपन में, इस नितांत भीतरी एकांत में, सब कंपन ठहर जाते हैं और अकंप का अनुभव होता है।
महावीर वाणी
ओशो
नसरुद्दीन ने कहा, “सबसे पहला काम, पहले मैं नंबर देखता हूं।’उस कैप्टन ने कहा कि नंबर से सफाई का क्या संबंध? नसरुद्दीन ने कहा, “जस्ट टु बी श्योर दैट दिस इज माइ ओन, आइ एम नाट क्लीनिंग सम बडी एल्पस,–यह पक्का करने के लिए कि बंदूक अपनी ही है, किसी और की बंदूक साफ नहीं कर रहे हैं।
यह जो नसरुद्दीन कह रहा है, बड़ी कीमत की बात कह रहा है। जिंदगी में करीब-करीब हम दूसरों की बंदूकें साफ करते रहते हैं, अपनी बंदूक तो गंदी ही रह जाती है। दूसरों की साफ करने के कारण फुर्सत ही नहीं मिलती कि अपने पर ध्यान चला जाये। जो व्यक्ति भी उत्तेजनाओं में रसलीन है, वह दूसरों की बंदूकें साफ करने में जीवन बिता देता है। दूसरों को ठीक करने में, दूसरों को सुधारने में, दूसरों को सुंदर बनाने में, दूसरों को मित्र बनाने में, दूसरों को अपने निकट लाने में, दूसरों का भोग करने में–पर सारा जीवन दूसरे पर लगा रहता है। और दूसरे काफी हैं! दूसरों का कोई अंत नहीं है।
सार्त्र ने एक अदभुत बात कही है। कहा है कि अदर इज द हेल–दूसरा नरक है। बात थोड़ी सही है। हम अपना नरक दूसरे के ही माध्यम से पैदा करते हैं। आप खुद अपने नरक को देखें। आदमी-आदमी का अपना-अपना नरक है। हर आदमी अपने-अपने नरक में जी रहा है। मुसकराहटें तो ऊपर हैं और धोखे की हैं, और चिपकायी गयी हैं, पेंटेड हैं–भीतर नरक है। और हर आदमी अपने-अपने नरक में जी रहा है; लेकिन वह नरक आप अकेले पैदा नहीं कर सकते हैं; उसके लिए आपको दूसरों की जरूरत है। दूसरों के बिना नरक पैदा नहीं हो सकता।
थोड़ा सोचें, क्या आप अकेले नरक पैदा कर सकते हैं? दूसरों के बिना नरक पैदा नहीं हो सकता। लेकिन, अगर यह सच है कि दूसरों के बिना नरक पैदा नहीं हो सकता, तो हम दूसरों के पीछे इतने पागल क्यों हैं?
क्योंकि यह आशा बंधी है, कि दूसरों के बिना स्वर्ग भी पैदा नहीं हो सकता। दूसरे के द्वारा स्वर्ग पैदा हो सकता है, इसी कोशिश में तो हम नरक पैदा कर लेते हैं। स्वर्ग का स्वप्न नरक को जन्म देता है। सब नरकों के द्वार पर लिखा है, स्वर्ग। तो जिस दरवाजे पर आप स्वर्ग लिखा देखें, जरा सोचकर प्रवेश करना, क्योंकि नरक बनानेवाले काफी कुशल हैं। वे अपने दरवाजे पर नरक नहीं लिखते, फिर कोई प्रवेश ही नहीं करेगा। नरक के दरवाजे पर सदा स्वर्ग लिखा होता है–वह दरवाजे पर ही होता है। भीतर जाकर, जैसे-जैसे भीतर प्रवेश करते हैं, वैसे-वैसे प्रगट होने लगता है।
दूसरे से जो स्वर्ग की आशा करता है, दूसरे के द्वारा उसका नरक निर्मित हो जायेगा। सार्त्र ठीक कहता है कि दि अदर इज द हेल। पर सार्त्र ने कहीं भी यह उल्लेख नहीं किया कि दूसरा नरक क्यों है। वह दूसरे के कारण नरक नहीं है। दूसरे में स्वर्ग की वासना ही नरक का जन्म बनती है। तो बहुत गहरे में देखने पर मेरी वासना ही, कि दूसरे से मैं स्वर्ग बना लूं, नरक का कारण होती है। और जो व्यक्ति दूसरे में उलझा है, वह सदा कंपित रहेगा।
आपने कभी देखा कि आपके जितने कंपन हैं, वे दूसरे के संबंध में होते हैं? क्रोध के, प्रेम के, घृणा के, मोह के, लोभ के–सब दूसरे के संबंध में होते हैं। थोड़ी देर को सोचें कि आप इस पृथ्वी पर अकेले रह गये हैं, क्या आपके भीतर कोई कंपन रह जायेगा? सारा संसार अचानक खो गया, आप अकेले हैं, तो कोई कंपन नहीं रह जायेगा। क्योंकि कंपन के लिए दूसरे से संबंधित होना जरूरी है; दूसरे और मेरे बीच वासना का सेतु बनना जरूरी है, तब कंपन होगा।
आदमी जब गहन भीतर डूबता है आंख बंद करके, बाहर को भूल जाता है–तो वह ऐसे ही हो जाता है, जैसे पृथ्वी पर अकेला है; जैसे और कोई भी न रहा। सब होंगे–लेकिन जैसे नहीं रहे; मैं अकेला हो गया। इस अकेलेपन में शैलेशी अवस्था पैदा होती है। इस अकेलेपन में, इस नितांत भीतरी एकांत में, सब कंपन ठहर जाते हैं और अकंप का अनुभव होता है।
महावीर वाणी
ओशो
No comments:
Post a Comment