आस्था किसी की भी नहीं है। प्रार्थना पूरी हो जाए, तो आस्था जमती है। प्रार्थना न पूरी हो, तो आस्था उखड़ जाती है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन रोज सुबह प्रार्थना करता था काफी जोर
से। परमात्मा सुनता था कि नहीं, पड़ोस के लोग सुन लेते थे कि सौ रुपए से कम
न लूंगा; निन्यानबे भी देगा, नहीं लूंगा। जब भी दे, सौ पूरे देना। आखिर पड़ोसी सुनते सुनते परेशान हो गए। एक पड़ोसी ने तय किया कि इसको एक
दफा निन्यानबे रुपए देकर देखें भी तो सही। वह कहता है कि निन्यानबे कभी न
लूंगा, सौ ही लूंगा। उसने एक दिन सुबह जैसे ही मुल्ला प्रार्थना कर रहा था,
एक निन्यानबे की थैली उसके झोपड़े के आँगन में फेंक दी।
मुल्ला ने पहला काम रुपए गिनने का किया। वह आधी प्रार्थना आधी रह गई; वह
पूरी नहीं कर पाया, नमाज पूरी नहीं हो सकी। उसने जल्दी से पहले गिनती की।
निन्यानबे पाकर उसने कहा, वाह रे परमात्मा, एक रुपया थैली का तूने काट
लिया!
उसने निन्यानबे स्वीकार कर लिए।
हमारी बनाई हुई प्रार्थना; हमारी प्रार्थना; और हम हिसाब लगा रहे हैं।
वहां कोई है या नहीं, इससे बहुत प्रयोजन नहीं है। इसलिए अगर आपको पक्का हो
जाए कि परमात्मा नहीं है, तो आपकी प्रार्थना टूट’ जाएगी, यह मैं जानता हूं।
इसलिए प्रश्न सार्थक है। लेकिन जो प्रार्थना परमात्मा के न होने से टूट
जाती है, वह प्रार्थना थी ही नहीं। प्रार्थना का कोई भी संबंध परमात्मा को
बदलने से नहीं है, प्रार्थना आपको बदलने की कीमिया है। जब आप प्रार्थना
करते हैं, तो वहां आकाश में बैठा हुआ परमात्मा नहीं रूपांतरित होता। जब आप
प्रार्थना करते हैं, तो उस प्रार्थना करने में आप बदलते हैं।
तो प्रार्थना एक प्रयोग है, जिस प्रयोग से आप अपने अहंकार को तोड़ते हैं,
अपने को झुकाते हैं। वहां कोई नहीं बैठा है, जिसके आगे आप अपने को झुकाते
हैं। झुकने की घटना का परिणाम है। आप झुकते हैं। आपको कठिन है बिना
परमात्मा के, इसलिए कोई हर्जा नहीं। आप मानते रहें कि परमात्मा है, लेकिन
असली जो घटना घटती है, वह आपके झुकने से घटती है।
आप झुकना सीखते हैं, किसी के सामने समर्पित होना सीखते हैं। कहीं आपका
माथा झुकता है, जो सदा अकड़ा हुआ है, वह कहीं जाकर झुकता है। कहीं आप घुटने
के बल छोटे बच्चे की तरह हो जाते हैं; कहीं आप रोने लगते हैं, आंखों से
आंसू बहने लगते हैं, हलके हो जाते हैं। और मैं कर सकता हूं यह धारणा
प्रार्थना से टूटती है। तू करेगा! तू करेगा सवाल नहीं है; मैं कर सकता हूं,
यह धारणा टूटती है। मैं नहीं कर सकूंगा, तभी हम प्रार्थना करते हैं। मुझसे
नहीं हो सकेगा।
अगर इसके गहरे अर्थ को समझें, तो इसका अर्थ है, जहां भी आपको समझ में आ
जाता है कि कर्ता मैं नहीं हूं वहीं प्रार्थना शुरू हो जाती है। यह
कर्तृत्व को खोने की तरकीब है। वह जो कर्तृत्व है कि मैं करता हूं, वह जो
अहंकार है, वह जो मेरी अस्मिता है कि करने वाला मैं हूं उसके टूटने का नाम
प्रार्थना है।
गीता दर्शन
ओशो
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