सुना है मैंने, एक गांव में किसी यात्री ने गांव के एक बूढ़े आदमी से
पूछा यात्री पर्यटक था और गुजरता था गांव से, गांव के संबंध में जानकारी
चाहता था उसने पूछा कि तुम्हारे गांव के इतिहास के संबंध में कुछ मुझे
बताओ; कभी कोई बड़ा आदमी यहां पैदा हुआ है? उस बूढ़े ने कहा, नहीं, यहां तो
सभी बच्चे पैदा होते हैं। यहां कोई बड़ा आदमी कभी पैदा नहीं हुआ।
सभी बच्चे पैदा होते हैं। लेकिन बचपन एक अवस्था है जिससे गुजर जाना चाहिए, जिससे पार हो जाना चाहिए। बहुत कम लोग पार हो पाते हैं। पिछले महायुद्ध में अमरीकी सैनिकों का परीक्षण किया गया मनोवैज्ञानिक। उनकी औसत मानसिक उम्र तेरह वर्ष पाई गई। तेरह वर्ष मानसिक उम्र! शरीर आगे निकल जाता है, मन कहीं अटक जाता है पीछे। सामान्य आदमी की मानसिक उम्र तेरह वर्ष है, चाहे उसके शरीर की उम्र सत्तर वर्ष हो। जैसे ही मनुष्य कामवासना से पीड़ित होता है, लगता है, उसकी प्रतिभा रुक जाती है। क्योंकि चौदह वर्ष के करीब आदमी कामवासना से पीड़ित होता है, और जैसे उसके जीवन की सारी ऊर्जा मस्तिष्क से हट कर काम-केंद्र की तरफ प्रवाहित हो जाती है। इसलिए अगर पूरब के मनीषी इस चेष्टा में रहे कि पच्चीस वर्ष तक युवक वनों में रहें और कामवासना उन्हें न पकड़े, और अगर उन्होंने इस अनुभव और इस प्रयोग के द्वारा ऐसा पाया था कि पच्चीस वर्ष तक अगर युवकों को कामवासना से पार रखा जा सके तो उनकी प्रतिभा पूरी विकसित हो जाती है। वह जो ऊर्जा कामवासना बन कर बहती है वह ऊर्जा पूरी की पूरी उनके जीवन के फूल को खिला देती है।
अभी, आपको शायद पता न हो, अमरीका में हर वर्ष बच्चों की कामुकता की उम्र कम होती चली जाती है। कुछ वर्षों पहले तक पंद्रह वर्ष कामवासना के जन्म की उम्र थी। फिर चौदह वर्ष हो गई, फिर तेरह वर्ष हो गई। अब बारह वर्ष औसत उम्र हो गई। अमरीका के मनोवैज्ञानिक चिंतित हैं कि अगर इस तरह गिराव हुआ तो कोई आश्चर्य नहीं है कि यह और नीचे गिर जाए। और जितना यह गिराव होता चला जाता है उतनी ही मानसिक उम्र भी कम होती चली जाती है। तो अगर आज अमरीका के युवक विक्षिप्त मालूम पड़ रहे हैं तो उसका एक कारण तो यह भी है कि उनकी मानसिक उम्र नीचे गिरती जा रही है।
सभी बच्चे की तरह पैदा होते हैं, लेकिन बच्चा होने के लिए पैदा नहीं होते। बच्चे के पार जाना है।
आपको खयाल शायद न हो कि आम आदमी पांच प्रतिशत बुद्धि का उपयोग करता है पूरे जीवन में। जो आंकड़ा सौ तक पहुंच सकता था वह केवल पांच तक ही उपयोग किया जाता है। आप सौ कदम चल सकते थे प्रतिभा के, आप पांच कदम ही चलते हैं। और जिनको हम बहुत प्रतिभाशाली कहते हैं वे भी पंद्रह प्रतिशत प्रतिभा का उपयोग करते हैं। जिनको नोबल प्राइज मिलती हैं वे भी पंद्रह प्रतिशत उपयोग करते हैं। मनुष्य की संभावना अनंत मालूम पड़ती है। अगर हमारे प्रतिभाशाली लोग भी पंद्रह कदम ही चलते हैं, जब कि जन्म से सौ कदम चलने की क्षमता लेकर आए थे, तो लगता है मनुष्यता बहुत अधूरे में जी रही है; अधूरे में भी कहना ठीक नहीं, बहुत छोटे से खंड में जी रही है। आपके मस्तिष्क के अधिकांश हिस्से बिना उपयोग के पड़े रह जाते हैं। आधा मस्तिष्क तो वैज्ञानिक कहते हैं समझ में ही नहीं आता कि क्यों है। क्योंकि उसका कोई उपयोग ही नहीं करता है। मनुष्य तो पूरी क्षमता लेकर पैदा होता है, लेकिन उस क्षमता का शायद पूरा उपयोग नहीं हो पा रहा है।
मनुष्य की शिक्षा में कहीं भूल है, स्वभाव में नहीं। मनुष्य के समाज में कहीं भूल है, क्योंकि समाज मनुष्य के द्वारा निर्मित है; मनुष्य की प्रकृति में कहीं भूल नहीं। क्योंकि वह प्रकृति तो जागतिक है, परमात्मा की है। भूल स्वभाव में नहीं है; भूल समाज में है, व्यवस्था में है।
समझें कि एक बीज हम बोते हैं। और बीज सौ फीट ऊंचा वृक्ष हो सकता था जो आकाश में बदलियों को चूमता। लेकिन उसे ठीक पानी नहीं मिलता, क्योंकि पानी देना माली के हाथ में है। बीज परमात्मा ने दिया है; पानी देना माली के हाथ में है। उसे ठीक खाद नहीं मिलता, उसे ठीक सुरक्षा नहीं मिलती। या माली पागल है और माली उसे बढ़ने नहीं देता। या माली को इस तरह का सपना मन में है कि इस पौधे को छोटा रखा जाए तो ज्यादा सुंदर मालूम पड़ेगा। तो वह उसको काटता रहता है, वह उसकी जड़ों को काटता रहता है, उसके पत्तों को, शाखाओं को काटता रहता है। उसे बढ़ने नहीं देता। या माली को खयाल है, या समाज में ऐसा फैशन है कि वृक्ष को उसके स्वाभाविक ढंग से बढ़ने दिया जाए तो वह कुरूप हो जाएगा, इसलिए माली उसे एक ढांचा पहना देता है तारों का, ताकि वह वैसा बढ़े जैसा समाज कहता है सौंदर्य है; समाज की धारणा जो सौंदर्य की है वैसा बढ़े। तो फिर पौधा बढ़ता है, लेकिन पौधा वैसा नहीं बढ़ता जैसा बीज लेकर आया था। और फिर अगर पौधा प्रसन्न न हो पाए और खुले आकाश में न उठ पाए और बदलियों को न छू सके और पौधे के जीवन में गीत पैदा न हो, तो हम कहेंगे कि बीज में कुछ भूल थी।
करीब-करीब स्थिति ऐसी है। प्रत्येक मनुष्य बुद्ध होने की क्षमता लेकर पैदा होता है। बुद्धत्व प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। जो बुद्ध नहीं पाता तो समझना चाहिए, कहीं शिक्षा में, यात्रा में, मार्ग में, माली ने, पिता ने, मां ने, शिक्षकों ने, गुरुओं ने, धर्मों ने, कहीं न कहीं कोई उपद्रव खड़ा किया है।
लाओत्से इसी उपद्रव की तरफ इशारा कर रहा है। वह कहता है, जब धर्म का लोप हो जाता है, स्वभाव का, ताओ का, तब मनुष्यता का सिद्धांत जन्म लेता है। और जब मनुष्यता का भी लोप हो जाता है, तब न्याय का सिद्धांत जन्म लेता है। और जब न्याय का भी लोप हो जाता है, तो कर्मकांड पैदा होता है।
ताओ उपनिषद
ओशो
सभी बच्चे पैदा होते हैं। लेकिन बचपन एक अवस्था है जिससे गुजर जाना चाहिए, जिससे पार हो जाना चाहिए। बहुत कम लोग पार हो पाते हैं। पिछले महायुद्ध में अमरीकी सैनिकों का परीक्षण किया गया मनोवैज्ञानिक। उनकी औसत मानसिक उम्र तेरह वर्ष पाई गई। तेरह वर्ष मानसिक उम्र! शरीर आगे निकल जाता है, मन कहीं अटक जाता है पीछे। सामान्य आदमी की मानसिक उम्र तेरह वर्ष है, चाहे उसके शरीर की उम्र सत्तर वर्ष हो। जैसे ही मनुष्य कामवासना से पीड़ित होता है, लगता है, उसकी प्रतिभा रुक जाती है। क्योंकि चौदह वर्ष के करीब आदमी कामवासना से पीड़ित होता है, और जैसे उसके जीवन की सारी ऊर्जा मस्तिष्क से हट कर काम-केंद्र की तरफ प्रवाहित हो जाती है। इसलिए अगर पूरब के मनीषी इस चेष्टा में रहे कि पच्चीस वर्ष तक युवक वनों में रहें और कामवासना उन्हें न पकड़े, और अगर उन्होंने इस अनुभव और इस प्रयोग के द्वारा ऐसा पाया था कि पच्चीस वर्ष तक अगर युवकों को कामवासना से पार रखा जा सके तो उनकी प्रतिभा पूरी विकसित हो जाती है। वह जो ऊर्जा कामवासना बन कर बहती है वह ऊर्जा पूरी की पूरी उनके जीवन के फूल को खिला देती है।
अभी, आपको शायद पता न हो, अमरीका में हर वर्ष बच्चों की कामुकता की उम्र कम होती चली जाती है। कुछ वर्षों पहले तक पंद्रह वर्ष कामवासना के जन्म की उम्र थी। फिर चौदह वर्ष हो गई, फिर तेरह वर्ष हो गई। अब बारह वर्ष औसत उम्र हो गई। अमरीका के मनोवैज्ञानिक चिंतित हैं कि अगर इस तरह गिराव हुआ तो कोई आश्चर्य नहीं है कि यह और नीचे गिर जाए। और जितना यह गिराव होता चला जाता है उतनी ही मानसिक उम्र भी कम होती चली जाती है। तो अगर आज अमरीका के युवक विक्षिप्त मालूम पड़ रहे हैं तो उसका एक कारण तो यह भी है कि उनकी मानसिक उम्र नीचे गिरती जा रही है।
सभी बच्चे की तरह पैदा होते हैं, लेकिन बच्चा होने के लिए पैदा नहीं होते। बच्चे के पार जाना है।
आपको खयाल शायद न हो कि आम आदमी पांच प्रतिशत बुद्धि का उपयोग करता है पूरे जीवन में। जो आंकड़ा सौ तक पहुंच सकता था वह केवल पांच तक ही उपयोग किया जाता है। आप सौ कदम चल सकते थे प्रतिभा के, आप पांच कदम ही चलते हैं। और जिनको हम बहुत प्रतिभाशाली कहते हैं वे भी पंद्रह प्रतिशत प्रतिभा का उपयोग करते हैं। जिनको नोबल प्राइज मिलती हैं वे भी पंद्रह प्रतिशत उपयोग करते हैं। मनुष्य की संभावना अनंत मालूम पड़ती है। अगर हमारे प्रतिभाशाली लोग भी पंद्रह कदम ही चलते हैं, जब कि जन्म से सौ कदम चलने की क्षमता लेकर आए थे, तो लगता है मनुष्यता बहुत अधूरे में जी रही है; अधूरे में भी कहना ठीक नहीं, बहुत छोटे से खंड में जी रही है। आपके मस्तिष्क के अधिकांश हिस्से बिना उपयोग के पड़े रह जाते हैं। आधा मस्तिष्क तो वैज्ञानिक कहते हैं समझ में ही नहीं आता कि क्यों है। क्योंकि उसका कोई उपयोग ही नहीं करता है। मनुष्य तो पूरी क्षमता लेकर पैदा होता है, लेकिन उस क्षमता का शायद पूरा उपयोग नहीं हो पा रहा है।
मनुष्य की शिक्षा में कहीं भूल है, स्वभाव में नहीं। मनुष्य के समाज में कहीं भूल है, क्योंकि समाज मनुष्य के द्वारा निर्मित है; मनुष्य की प्रकृति में कहीं भूल नहीं। क्योंकि वह प्रकृति तो जागतिक है, परमात्मा की है। भूल स्वभाव में नहीं है; भूल समाज में है, व्यवस्था में है।
समझें कि एक बीज हम बोते हैं। और बीज सौ फीट ऊंचा वृक्ष हो सकता था जो आकाश में बदलियों को चूमता। लेकिन उसे ठीक पानी नहीं मिलता, क्योंकि पानी देना माली के हाथ में है। बीज परमात्मा ने दिया है; पानी देना माली के हाथ में है। उसे ठीक खाद नहीं मिलता, उसे ठीक सुरक्षा नहीं मिलती। या माली पागल है और माली उसे बढ़ने नहीं देता। या माली को इस तरह का सपना मन में है कि इस पौधे को छोटा रखा जाए तो ज्यादा सुंदर मालूम पड़ेगा। तो वह उसको काटता रहता है, वह उसकी जड़ों को काटता रहता है, उसके पत्तों को, शाखाओं को काटता रहता है। उसे बढ़ने नहीं देता। या माली को खयाल है, या समाज में ऐसा फैशन है कि वृक्ष को उसके स्वाभाविक ढंग से बढ़ने दिया जाए तो वह कुरूप हो जाएगा, इसलिए माली उसे एक ढांचा पहना देता है तारों का, ताकि वह वैसा बढ़े जैसा समाज कहता है सौंदर्य है; समाज की धारणा जो सौंदर्य की है वैसा बढ़े। तो फिर पौधा बढ़ता है, लेकिन पौधा वैसा नहीं बढ़ता जैसा बीज लेकर आया था। और फिर अगर पौधा प्रसन्न न हो पाए और खुले आकाश में न उठ पाए और बदलियों को न छू सके और पौधे के जीवन में गीत पैदा न हो, तो हम कहेंगे कि बीज में कुछ भूल थी।
करीब-करीब स्थिति ऐसी है। प्रत्येक मनुष्य बुद्ध होने की क्षमता लेकर पैदा होता है। बुद्धत्व प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। जो बुद्ध नहीं पाता तो समझना चाहिए, कहीं शिक्षा में, यात्रा में, मार्ग में, माली ने, पिता ने, मां ने, शिक्षकों ने, गुरुओं ने, धर्मों ने, कहीं न कहीं कोई उपद्रव खड़ा किया है।
लाओत्से इसी उपद्रव की तरफ इशारा कर रहा है। वह कहता है, जब धर्म का लोप हो जाता है, स्वभाव का, ताओ का, तब मनुष्यता का सिद्धांत जन्म लेता है। और जब मनुष्यता का भी लोप हो जाता है, तब न्याय का सिद्धांत जन्म लेता है। और जब न्याय का भी लोप हो जाता है, तो कर्मकांड पैदा होता है।
ताओ उपनिषद
ओशो
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