बुद्ध एक दिन सुबह सुबह प्रवचन देने आए और हाथ में एक रूमाल लेकर आए। लोग
बहुत चकित थे, क्योंकि वे कभी कुछ लेकर आते न थे, हाथ में रूमाल आज क्यों
था? रेशमी रूमाल था, और बैठकर इसके पहले कि प्रवचन दें, उन्होंने रूमाल पर
एक गांठ के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी, चौथी, पांचवीं। पांच गांठें
लगायीं। लोग बिलकुल देखते रहे टकटकी बांधकर कि क्या हो रहा है? क्या कर रहे
हैं वे? क्या आज कोई जादू का खेल दिखानेवाले हैं? और पांचों गांठें लगाने
के बाद बुद्ध ने पूछा कि भिक्षुओ, मैं एक प्रश्न पूछता हूं। अभी अभी तुमने
देखा था, यह रूमाल बिना गांठों के था, अब गांठों से भर गया। क्या यह रूमाल
वही है जो बिना गांठों का था या दूसरा है? उनके शिष्य आनंद ने कहा कि
भगवान, आप हमें व्यर्थ की झंझट में डाल रहे हैं। क्योंकि अगर हम कहें यह
रूमाल वही है, तो आप कहेंगे, उसमें गांठें नहीं थीं, इसमें गांठें हैं। अगर
हम कहें यह रूमाल दूसरा है, तो आप कहेंगे, यह वही है। अरे, गांठों से क्या
फर्क पड़ता है, रूमाल तो बिलकुल वही का वही है। यह रूमाल एक अर्थ में वही
है जो आप लाए थे, क्योंकि कोई बुनियादी फर्क नहीं पड़ा है और दूसरे अर्थ में
वही नहीं है, क्योंकि सांयोगिक फर्क पड़ गया है, इसमें पांच गांठें लग गयी
हैं।
बुद्ध ने कहा, तुम में और मुझमें बस, इतना ही फर्क है- सांयोगिक। मैं
गांठरहित रूमाल हूं और तुममें गांठें लग गयी हैं और लगानेवाले तुम हो। फिर
बुद्ध ने कहा, दूसरा प्रश्न मुझे यह पूछना है कि मैं यह गांठें खोलना चाहता
हूं जैसे कि तुम सब अपनी अपनी गांठें खोलना चाहते हो।….. गांठ शब्द प्यारा
है। बुद्ध ने तो जो शब्द प्रयोग किया, वह ग्रंथि था। वह और भी प्यारा शब्द
है। इसलिए हमने बुद्ध को, महावीर को निर्ग्रंथ कहा है। जिनकी ग्रंथियां
टूट गयीं, जिनकी गांठें खुल गयीं। और है ही क्या? सबसे बड़ी गांठ यह अहंकार
की है। यह सबसे बड़ी ग्रंथि है। तो बुद्ध ने कहा, मुझे यह गांठें खोलनी हैं,
जैसा कि तुम सब मेरे पास इकट्ठे हुए हो गांठें खोलने के लिए, तो मैं कैसे
खोलूं? और बुद्ध ने उस रूमाल के दोनों छोर पकड़कर खींचना शुरू किया।
आनंद ने कहा कि भगवान, आप क्या कर रहे हैं? इस तरह तो गांठें और बंध
जाएंगी। आप रूमाल खींच रहे हैं, गांठें छोटी होती जा रही हैं, खोलना
मुश्किल हो जाएगा। खींचने से नहीं खुल सकती हैं गांठें। रूमाल को ढीला
छोड़िए, खींचिए मत।
बुद्ध ने कहा, यह दूसरी बात भी तुम समझ लो कि जो भी खींचेगा, उसकी
गांठें और बंध जाएंगी। ढीला छोड़ना होगा। विराम चाहिए, विश्राम चाहिए, तनाव
नहीं। और तुम्हारे तथाकथित धार्मिक लोग बड़े तनावग्रस्त हो जाते हैं। गाठें
खोलने के लिए ऐसे दीवाने हो जाते हैं कि ये खींचते ही चले जाते हैं रूमाल।
कोई उपवास कर रहा है, कोई सिर के बल खड़ा है, कोई धूनी रमाए हुए है, यह क्या
है? ये गांठें खींच रहे हैं। ये खींचते ही चले जा रहे हैं। इनका अहंकार और
मजबूत होता जा रहा है सूक्ष्म जरूर हो रहा है, पहले मोटा दिखायी पड़ता था,
क्योंकि गांठ पोली थी, अब खिंच गयी है तो छोटा हो गया है, दिखायी भी नहीं
पड़ता गांठ इतनी छोटी हो सकती है कि दिखायी भी न पड़े। और वही खतरा है, कि जब
गांठ दिखायी न पड़े तो बहुत मुश्किल हो जाती है। उसका खोलना मुश्किल हो
जाता है। खोलोगे भी कैसे?
तो बुद्ध ने कहा, मैं क्या करूं, आनंद, तुम्हीं कहो! तो आनंद ने कहा,
पहली तो बात यह है कि आप रूमाल को ढीला छोड़ दें, इसी वक्त ढीला छोड़ दें।
जितना आप खींचेंगे उतना मुश्किल हो जाएगा। दूसरी बात, इसके पहले कि हम
सोचें कैसे गाठें खोली जाएं, मैं आपसे पूछना चाहता हूं : आपने कैसे गांठें
बांधी? क्योंकि जब तक हम यह न जानें कि कैसे गाठें बांधी, तब तक कैसे
खुलेंगी, यह नहीं जाना जा सकता।
कैसे गांठें बांधी, बस इतना ही तो सारा सार है। तुमने कैसे गांठ बांध ली
है, इसको समझ लो, तो खोलने में कुछ देर नहीं। तुमने कैसे ईंटें रखकर अपने
चारों तरफ कारागृह बना लिया है? पैदा होते से ही जो पहली गांठ समाज,
परिवार, शिक्षा, धर्म, राज्य व्यक्ति पर बांधना शुरू कर देते हैं, वह
अहंकार की गांठ है। हम बच्चे को कहने लगते हैं : प्रथम आना स्कूल में,
गोल्ड मेडल लाना, प्रतियोगिता में जीतना, हारेना कभी नहीं, टूट जाना मगर
झुकना नहीं, कुल मर्यादा की प्रतिष्ठा! हम अहंकार थोप रहे हैं। हम उसको
गांठ बांध रहे हैं। फिर हम उससे कहते हैं, आगे बढ़ो! महत्वाकांक्षी बनो! धन
कमाओ! यश कमाओ! पद प्रतिष्ठा लाओ! तुम जैसा चमकता हुआ कोई भी न हो! तुम
सबको मात कर दो, सबको फीका कर दो! और सब भी यही करने में लगे हैं। ऐसे
राजनीति पैदा होती है।
राजनीति अहंकार के संघर्ष का नाम है। और धर्म अहंकार का विसर्जन है।
दीपक बारा नाम का
ओशो
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