मंजुश्री की प्यारी कथा है। वह बुद्ध का पहला शिष्य है, जो निर्वाण को
उपलब्ध हुआ। जिस दिन उसको बुद्धत्व प्राप्त हुआ, जिस दिन उसने स्वयं को
जाना, बैठा था वृक्ष के नीचे शांत, निर्विचार। जागकर अपने को देखता था।
देखते—देखते बात बन गयी। बनते —बनते बन जाती है। सध गयी। सब ठहर गया। मन
ठहर गया; समय ठहर गया। विचार पता नहीं कहां विलुप्त हो गये! जैसे अचानक
आकाश से बदलिया विदा हो गयीं और सूरज निकल आया!
गहन मौन, सन्नाटा और तत्क्षण उसने देखा, आकाश से फूलों की वर्षा होने
लगी: ऐसे फूल, जौ उसने न कभी देखे, न कभी सुने! ऐसी गंध, जो उसने कभी जानी
नहीं। चौंका। यह तो वसंत का मौसम भी नहीं!
जिस वृक्ष के नीचे बैठा था, उसमें तो एक फूल भी न था। इतने फूल! इतने
फूल कि जिनकी गणना असंभव, बरसे ही चले जाते हैं, बरसे ही चले जाते हैं। उसने
आंख उठाकर .आकाश की तरफ देखा तो देखा कि देवता फूल बरसा रहे हैं!
यह तो कथा है प्रतीककथा है, इतिहास मत समझ लेना। इसके भीतर अर्थ तो
गहरा है, लेकिन तथ्य मत मान लेना। सत्य तो बहुत है, मगर तथ्य जरा भी नहीं।
सत्य को कहना .हो, तो यूं ही कहा जा सकता है। घूम फिरकर ही कहना होता है; सीधा कहने का उपाय नहीं।
तो मंजुश्री ने पूछा उन देवताओं से जो फूल बरसा रहे थे कि ‘तुम्हें क्या
हो गया है? यह किसलिए फूल गिराये जाते हो? तुम शायद कुछ भूलचूक में हो।
बुद्ध तो वहां दूर दूसरे वृक्ष कै नीचे बैठे हैं; वहां गिराओ फूल। मैं तो
मंजुश्री हूं। उनका एक छोटासा शिष्य हूं। उनके प्रेम में लग गया हूं। मुझे
कुछ चाहिए भी नहीं और। जो फूल चाहिए थे मुझे मिल चुके हैं। और तुम्हें
अर्चना करनी हो, तो उनकी करो। वे रहे मेरे गुरु! मुझ पर क्यों फूल गिराते
हो? मैंने तो कुछ किया ही नहीं। मेरी तो कोई पात्रता भी नहीं, कोई योग्यता
भी नहीं।’
उन देवताओं ने कहा, ‘मंजुश्री! हम फूल गिरा रहे हैं उस महत अवसर के स्वागत के समय में, जब तुमने शून्य पर अद्भुत प्रवचन दिया है!’
मंजुश्री ने कहा, ‘शून्य पर प्रवचन! मैं एक शब्द बोला नहीं!’
देवता हंसे और उन्होंने कहा, ‘न तुम एक शब्द बोले और न एक शब्द हमने
सुना। न तुमने कुछ कहा, न हमने कुछ सुना। इसी को तो कहते हैं, शून्य पर
महाप्रवचन! उसी खुशी में हम फूल गिरा रहे हैं। तुमने कहा नहीं, हमने सुना
नही और बात हो गयी! बिन कहे बात हो गयी। इसलिए फूल गिर रहे हैं। अब ये फूल
तुम पर गिरते ही रहेंगे। ये फूल गिरना शुरू होते हैं, फिर बंद नहीं होते।
समझना : यह तो बोधकथा है, प्रतीक कथा है। ऐसे झाड़ के नीचे बैठकर और
बार बार आंखें उठाकर ऊपर मत देखना कि देवता वगैरह आये कि नहीं; पुष्पक
विमान पर बैठे हुए; फूल वगैरह लाये कि नहीं? नहीं तो उसी में सब गड़बड़ हो
जायेगा!
तुम तो इतना ही जानना कि शून्य प्रवचन क्या है। वह हो जाये, तो कुछ आकाश
से फूल बरसाने की जरूरत नहीं होती; तुम्हारे भीतर ही फूल उमग आते हैं;
अंतसूलोक में ही वसंत आ जाता है। फिर कैसी कामनाएं? फिर कैसी वासनाएं?
और शिष्य को तो सवाल ही नहीं उठता कि आत्मवेत्ता पुरुष की अर्चना इसलिए
करे—क्योंकि उसकी बड़ी शक्ति है, आत्मवेत्ता पुरुष की; महान उपलब्धि है!
नहीं; शिष्य तो अकारण प्रीति में पड़ता है। प्रीति तो सदा अकारण होती है।
जहां कारण है, वहां व्यवसाय है। जहां कोई कारण नहीं है…….।
अब कोई मेरे सन्यासियों से पूछे कि ‘मुझसे क्या उन्हें मिल रहा है?’ कुछ
भी तो नहीं! कोई मेरे संन्यासियों से पूछे कि ‘मुझसे क्यों बंधे हो? मेरे
पास क्यों बैठे हो? वर्ष आते हैं, वर्ष जाते हैं और तुम मेरे पास रुके
हो—क्यों?’ तो मेरे संन्यासी उत्तर न दे सकेंगे। जो उत्तर दे सकें, वे मेरे
संन्यासी नहीं। कोई उत्तर दे न सकेंगे। उत्तर का कोई सवाल नहीं है। बेबूझ
है बात।
माण्डूक्य उपनिषद
ओशो
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