मुल्ला नसरुद्दीन के रुपये खो गये थे। और उसने कई खीसे बना रखे थे। जैसा
कि अक्सर कृपण लोग बना रखते हैं। सब खीसे उसने देख लिए सिर्फ–मैं उसको देख
रहा हूं कि उसने एक खीसा बांये तरफ का नहीं देखा। और वह बड़ा परेशान है।
मैंने उससे कहा कि तुम एक खीसा छोड़ दिए? उसने कहा कि वह मैं जान कर छोड़ रहा
हूं। उससे कम से कम आशा तो है कि शायद वहां हो। सब तो देख लिए, निराश हो
गया हूं। अब इसको मैं न देखूंगा; क्योंकि अगर उसमें भी न पाया, सब आशा टूट
जायेगी।
तुम डरते हो, जांचने को। क्या है तुम्हारे पास? डर यह है कि अगर कुछ भी न
हुआ; कल तक कम से कम एक वहम था, उस वहम की मस्ती में ही चल रहे थे, अब वह
वहम भी टूट गया। लेकिन जिस व्यक्ति को भी सत्य की खोज करनी हो, उसे वहम तो
तोड़ना ही होगा। मैं तुमसे कहता हूं, झूठ को ही दांव पर लगाना है; कुछ और
तुम्हारे पास है भी नहीं। बीमारी को दांव पर लगाना है; कुछ और तुम्हारे पास
है भी नहीं। अज्ञान को दांव पर लगाना है; कुछ और तुम्हारे पास है भी नहीं।
माक्र्स ने अपनी प्रसिद्ध किताब कम्युनिस्ट-मैनिफेस्टो में अंतिम पंक्ति
लिखी है–‘दुनिया के मजदूरो, एक हो जाओ, क्योंकि तुम्हारे पास खोने को
सिवाय जंजीरों के और कुछ भी नहीं।’
वही मैं तुमसे कहता हूं। और मजदूरों के पास शायद खोने को कुछ हो भी,
लेकिन तुम्हारे पास तो निश्चित खोने को कुछ भी नहीं है। माक्र्स मजदूरों को
सर्वहारा कहता है, मैं नहीं कहता, मैं तुम्हें सर्वहारा कहता हूं; जिनका
सब खो गया है। मजदूरों के पास भी कुछ है। और अब तो काफी है। माक्र्स को मरे
काफी समय हो गया। सर्वहारा तो तुम सभी हो–मजदूर, अमीर-गरीब सब! पंडित-मूढ़
सब! बूढ़े-जवान सब! स्त्री-पुरुष सब! सर्वहारा हो। सब तुम्हारा खो गया, कुछ
तुम्हारे पास नहीं। अगर दांव पर लगाना है तो सिर्फ सर्वहारापन लगाना है।
मगर तुम डरते हो देखने में कि मेरे पास कुछ नहीं। तिजोड़ी खोलने से डरते हो,
हाथ कंपता है, क्योंकि अब तक एक भरोसा है कि तिजोड़ी में कुछ है। आदमी
भरोसे से जीता है। गौर से देखोगे, कुछ न पाओगे; तब दांव लगाना आसान है।
और दांव, जिस दिन लगाने की तैयारी हो, उस दिन यह प्रक्रिया करने जैसी
है; उस दिन एक ही काम करने जैसा है कि बुद्धि को तोड़ना है; उसका वर्तुल
भयंकर है। और सीधे तोड़ने का कोई उपाय नहीं, उसे थका ही डालना पड़ेगा। बुद्धि
को उसकी पूरी चिंता तक जाने दो। उसकी चिंता इतनी हो जाये कि तुम झेल न
पाओ, वह असह्य हो जाये। क्योंकि इस जगत में असह्य के बिंदु से ही
क्रांतियां होती हैं, उसके पहले कोई क्रांति नहीं होती।
तुम कुनकुने-कुनकुने हो। तुम्हारी चिंता भी कुनकुनी है। तुम अपनी चिंता
को ठीक-ठाक सम्हाल कर रखते हो। तुम अपनी चिंता को न तो मरने देते, न मिटने
देते, न पूरा होने देते। तुम उसे बीच में पकड़े रखते हो। या तो उसे खत्म करो
या पूरा जी लो। और मैं तुमसे कहता हूं कि खत्म करने का एक ही उपाय है कि
पूरा जी लो।
दिया तले अँधेरा
ओशो
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