व्यक्तियों में ही, मनुष्य में ही सी और पुरुष नहीं होते
हैं पशुओं में भी पक्षियों में भी। लेकिन एक और भी नयी बात आपसे कहना चाहता
हू : देशों में भी स्त्री और पुरुष देश होते हैं।
भारत एक स्त्री देश है और स्त्री देश रहा है। भारत की पूरी मनःस्थ्ति
स्त्रैण है। ठीक उसके उलटे जर्मनी और अमेरिका जैसे देशों को पुरुष देश कहा
जाता है। भारत की पूरी आत्मा नारी है। इसलिए ही भारत कभी? आक्रामक नहीं हो
पाया। पूरे इतिहास में आक्रामक नहीं हो पाया!
इसलिए भारत में हिंसा का कोई प्रभाव पैदा नहीं हो सका। भारत की
पूरे विचार की कथा अहिंसा की कथा है। भारत के पूरे इतिहास को देखने से एक?
आश्रर्यजनक घटना मालूम पड़ती है। दुनिया का कोई भी देश उस अर्थों में
स्त्रैण नहीं है, जिस अर्थों में भारत। यही भारत का दुर्भाग्य भी सिद्ध
हुआ। सारा जगत पुरुषों का, सारा जगत पुरुष—वृत्तियों का, सारा आक्रामक,
सारा जगत हिंसात्मक भारत अकेला आक्रामक नहीं, हिंसात्मक नहीं!
भारत के पिछले तीन हजार वर्ष का इतिहास दुख, परेशानी और कष्ट का
इतिहास रहा है। लेकिन यही तथ्य आने वाले भविष्य में सौभाग्य का कारण भी बन
सकता है। क्योंकि जिन देशों ने पुरुष के प्रभाव में विकास किया, अपनी मरण
घड़ी के निकट पहुँच गये।
पुरुष का चित्त आक्रमण का चित्त है, एग्रेशन का। पुरुष का चित्त
हिंसा का चित्त है, वायलेंस का। पश्चिम के जिन देशों ने उस चित्त के
अनुकूल विकास किया, वे सारे देश धीरे धीरे युद्धों से गुजरकर अंतिम युद्ध,
टोटल वार के करीब पहुंच गये। अब कोई परिणति नहीं मालूम होती सिवाय कि ये
टकराये और टूट जायें, नष्ट हो जायें। उनके साथ पुरुषों ने जो सभ्यता खड़ी की
है आज तक, वह सारी की सारी नष्ट हो जाये।
या दूसरा उपाय यह है कि इतिहास का चक्र घूमे और पुरुष की सभ्यता
की कथा बंद हो, और एक नया अध्याय शुरू हो, जो अध्याय सी चित्त की सभ्यता का
अध्याय होगा। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है। इसे हम समझें तो हम मनुष्य चेतना के भीतर चलने वाले सबसे बड़े ऊहापोह से परिचित हो सकेंगे।
नीत्शे जैसा व्यक्ति भारत में हम लाख कोशिश करें तो पैदा नहीं हो
सकता। नीत्शे जर्मनी में ही पैदा हो सकता है! और जर्मनी लाख उपाय करे तो भी
गांधी और बुद्ध जैसे आदमी को पैदा करना जर्मनी के लिए असंभव है। गांधी और
बुद्ध जैसे व्यक्ति भारत में ही पैदा हो सकते हैं। यह पैदा हो जाना आकस्मिक
नहीं है, यह एक्सीडेन्टल नहीं है। कोई व्यक्ति पैदा होता है, कोई
विचारधारा पैदा होती है, यह पूरे देश के प्राणों के हजारों वर्षों के मंथन
का परिणाम होता है।
यह आश्रर्यजनक है कि भारत का आज तक का पूरा इतिहास भूलकर भी पुरुष
का इतिहास नहीं रहा है। और इसीलिए भारत में विज्ञान का जन्म भी नहीं हो
सका। विज्ञान एक पुरुष कर्म है। विज्ञान का अर्थ है : प्रकृति पर विजय।
विज्ञान का अर्थ है, जो चारों तरफ फैला हुआ जगत है, उसको जीतना। पुरुष का
मन जीतने में बहुत आतुर है।
भारत ने प्रकृति को जीतने की कोई कोशिश नहीं की। असल में भारत ने
कभी भी किसी को जीतने की कोई कोशिश नहीं की। जीतने की धारणा ही भारत के
चित्त में बहुत गहरे नहीं जा सकी। कभी किन्हीं ने छोटे छोटे प्रयास किये तो
भारत की आत्मा उनके साथ खड़ी नहीं हो सकी।
स्वभावत: इस दुनिया में सारे लोग जीतने में आतुर हों, उसमें भारत
पिछड़ता चला गया। यह भी दिखाई पड़ेगा कि इस पिछड़ जाने में अब तक तो दुर्भाग्य
रहा। लेकिन आगे सौभाग्य हो सकता है। क्योंकि वे जो जीत की दौड़ में आगे गये
थे, वे अपनी जीत के ही अंतिम परिणाम में वहां पहुंच गये हैं, जहां आत्मघात
के सिवा और कुछ भी नहीं हो सकता।
सम्भोग से समाधी
ओशो
No comments:
Post a Comment