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Monday, September 21, 2015

अललटप्पू

    मैं अमृतसर में था और एक वेदांत सम्मेलन में बोलने गया था। मुझसे पहले एक वेदांती स्वामी हरिगिरी बोले। मैं उनके बाद बोला, वे बहुत मुश्किल में पड़ गए। वे बीच में उठकर खड़े हो गए और कहा कि ये बातें गलत हैं। और में जो कह रहा था वह यही कह रहा था कि परमात्मा को कोई बाहर से नहीं जनवा सकता, भीतर से जानना होगा। स्वयं ही जानना होगा।

     तो उन्होंने एक बड़ी प्रसिद्ध कहानी कही। उनको पता नहीं था वे किससे उलझ रहे हैं। क्योंकि कहानी के संबंध में कोई मुझसे न उलझे यही अच्छा है। उन्होंने बड़ी प्रसिद्ध कहानी कही। तुम्हें मालूम होगी, वेदांती निरंतर कहते रहते हैं, कि दस आदमियों ने नदी पार की। वर्षा की नदी थी, पूर आयी नदी थी। फिर उस पार जाकर उन्होंने गिनती की तो प्रत्येक अपने को गिनना भूल गया। गिनती नौ होती थी। वे रोने लगे बैठकर कि एक खो गया। फिर वहां से कोई ज्ञानी निकला। होगा कोई वेदांती! उसने देखी हालत, उसने कहा, क्यों रोते हो? उन्होंने कहा, हम दस नदी पार किए थे, अब नौ रह गए। एक कोई डूब गया है, उसके लिए रो रहे हैं। उसने नजर डाली, दस के दस थे। उसने कहा, जरा गिनती करो तो उन्होंने गिनती की। पकड़ में आ गई भूल कि हरेक अपने को छोड़े जा रहा है। तो उसने कहा, देखो, अब इस तरह गिनती करो : मैं एक चांटा मारूंगा पहले को, तब तुम बोलना, एक; दूसरे को मारूं तो बोलना, दो; तीसरे को मारूं तो बोलना, तीन। मैं चांटा मारते जाऊंगा, तुम बोलते जाना आंकड़े। ऐसा वह मारता चला चांटा। और जब दसवें को मारा तो वह बोला, दस। वे बड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा कि चमत्कार कर दिया आपने।

   हरिगिरी जी ने बताया लोगों को कि देखो, दूसरे ने बताया तब उनको बोध हुआ। अगर यह वेदांती वहां से न निकलता, कोई। बोध करवानेवाला न होता तो वे नौ ही के नौ रहते और रोते ही रहते। अब उन्होंने सोचा कि बात खतम हो गई। मैंने उनसे पूछा कि यह तो बताइए कि जब इन्होंने नदी पार की, उसके पहले गिनती इन्होंने कैसे की थी? यह कहानी जरा अब आगे ले चलें। नदी जब इन्होंने पार की तो गिनती की थी? उनको कहना पड़ा कि हां, गिनती की थी, दस थे। गिनती कैसे की थी? नदी पार करने में ही भूल गए गिनती करना!

   जरूर किसी और की मान ली होगी। किसी और ने कहा होगा, तुम दस हो। खुद गिना होता तो कैसे भूल जाते? फिर भी गिन लेते। किसी और ने कह दिया होगा कि तुम दस हो। मान लिया होगा। मान्यता से चले होंगे कि हम दस हैं, फिर गडबड़ खड़ी हुई। मान्यता से जो चलेगा, गड़बड़ खड़ी हो जाती है। क्योंकि जब जानने का सवाल आएगा तब चूक हो जाएगी। इसलिए चूक हुई। दूसरे के बताने से ही भूल हुई, मैंने उनसे कहा। वह वेदांती इनको पहले भी कोई मिल गया होगा उस तरफ भी। वेदांती दोनों किनारों पर रहते हैं। और जहां तक तो संभावना है, यही सज्जन रहे होंगे पहले भी, जिन्होंने उनको बताया था कि तुम दस हो। यह दूसरे की बतायी बात थी इसलिए बह गई पानी में। यह अपनी जानी बात होती तो कैसे बहती?
 
  अपना जानना ही ज्ञान है। दूसरा जो जना देता है, वह जानकारी है। जानकारी तो उधार है। और जितने लोग उधारी से भरे हैं। उनको बड़ा डर रहता है कि कहीं जाननेवाला कोई आदमी न मिल जाए। नहीं तो एकदम उनकी रोशनी फीकी पड़ जाती है। एकदम मुश्किल खड़ी हो जाती है।

     अब मिल जाए कहीं तुम्हें मनोहरदास वेदांती तो उनको कहना, चले चलो। आमना सामना हो ले। पता चल जाए कि अललटप्पू क्या है। अगर मैं अललटप्पू हूं तो इस जगत् में जो भी महत्त्वपूर्ण बातें कही गई हैं, सब अललटप्पू हो जाएंगी। मेरे डूबने में सब वेद, सब कुरान, सब उपनिषद् डूब जाएंगे। मेरे सही होने में वे सही हैं। मैं गवाह हूं। मैं उनका साक्षी हूं। और जो मैं तुमसे कह रहा हूं, अपने अनुभव से कह रहा हूं। यह गिनती मैंने किसी और से नहीं सीखी है। यह किसी और ने मुझे नहीं बताया है कि तुम दस हो। यह मैंने जाना है। इसे छीन लेने का कोई उपाय नहीं है। यह स्वानुभव है।

नाम सुमिर मन बाँवरे 

ओशो 

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