जैसे
मूर्च्छा में
दर्द फैलता है, वैसे
चेतना में
दर्द सिकुड़ कर
छोटा हो जाता
है। एक तो यह अनुभव
होगा कि दर्द
हमने जितने
अनुभव किए, हमने जितने
दुख भोगे, उतने
दुख थे नहीं।
जितने दुख
हमने भोगे हैं,
उतने दुख थे
नहीं। हमने
दुखों को बहुत
बड़ा करके भोगा
है। ठीक यही
बात सुख के
संबंध में भी
सच है कि जितने
सुख हमने भोगे
हैं, वे भी
थे नहीं।
सुखों को भी
हमने बहुत बड़ा
करके भोगा है।
अगर
हम सुख को भी
स्मरणपूर्वक
भोगें, तो हम
पाएंगे कि वह
भी बहुत छोटा
हो जाता है।
अगर हम दुख को
भी
स्मरणपूर्वक
भोगें, तो
पाएंगे कि वह
भी बहुत छोटा
हो जाता है।
जितना होश हो,
उतना सुख और
दुख सिकुड़ कर
बहुत छोटे हो
जाते हैं।
इतने छोटे हो जाते
हैं कि बहुत
गहरे अर्थों
में मीनिगलेस
हो जाते हैं।
असल में उनका
अर्थ उनके
विस्तार मै है।
वह पूरी
जिंदगी को
घेरे हुए
मालूम पड़ते
हैं, लेकिन
जब बहुत
बोधपूर्वक
उनको देखा जाए,
तो छोटे
होते —होते
इतने अर्थहीन
हो जाते हैं
कि जिंदगी से
उनका कुछ लेना—देना
नहीं रह जाता
है।
और
दूसरी जो घटना
घटेगी वह यह
कि जब आप दुख
को बहुत गौर
से देखेंगे, तो
आपके और दुख
के बीच एक
फासला पैदा हो
जाएगा, एक
डिस्टेंस
पैदा हो जाएगा।
असल में किसी
भी चीज को हम
देखें, तो
फासला पैदा
होता है।
दर्शन फासला
है। किसी भी
चीज को हम
देखें, तो
फासला बनना
तत्काल शुरू
हो जाता है।
अगर आप अपने
दुख को गौर से
देखेंगे, तो
आप पाएंगे कि
आप अलग हैं और
दुख अलग है।
क्योंकि
सिर्फ वही
देखा जा सकता
है जो अलग हो।
वह तो देखा ही
नहीं जा सकता
है जो एक हो।
तो
जो आदमी अपने
दुख के प्रति
सचेतन बोध से
भरता है, कांशसनेस
से भरता है, रिमेंबरिंग
से भरता है, वह अनुभव
करता है कि
दुख कहीं और
है, मैं
कहीं और हूं।
और जिस दिन यह
पता चलता है
कि दुख कहीं
और, और मैं
कहीं और हूं, मैं जान रहा
हूं और दुख
कहीं और घटित
हो रहा है, वैसे
ही दुख की
मूर्च्छा टूट
जाती है। और
जैसे ही यह
पता चलता है कि
शरीर के दुख
कहीं और घटित
होते हैं, सुख
भी कहीं और
घटित होते हैं,
हम सिर्फ
जानने वाले
हैं, वैसे
ही शरीर के
प्रति हमारा जो
तादात्म्य, जो
आइडेंटिटी है,
वह टूट जाती
है। तब हम
जानते हैं कि
मैं शरीर नहीं
हूं।
मैं मृत्यु सिखाता हूँ
ओशो
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