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Tuesday, September 29, 2015

मन का नाम संसार

मन क्या है? विचारों का सतत प्रवाह। जैसे राह चलती है! दिन-भर चलती है, चलती ही रहती है, भीड़-भाड़ गुजरती ही रहती है। कोई इधर जा रहा है, कोई उधर जा रहा है, कोई पूरब, कोई पश्चिम, कोई दक्षिण, कोई उत्तर! ऐसा मन एक चौराहा है, जिस पर विचारों के यात्री चलते हैं, वासनाओं के यात्री चलते हैं, कल्पनाओं, आकांक्षाओं के यात्री चलते हैं, स्मृतियों, योजनाओं के यात्री चलते हैं।

तुम मन नहीं हो, तुम चौराहे पर खड़े द्रष्टा हो, जो इन यात्रियों को आते-जाते देखता है। लेकिन इस चौराहे पर तुम इतने लंबे समय से खड़े हो, सदियों-सदियों से, कि तुम्हें अपना विस्मरण हो गया है। तुम्हें अपनी ही याद नहीं रही है। तुमने मान लिया है कि तुम भी इसी भीड़ के हिस्से हो जो मन में से गुजरती है। तुम मन के साथ एक हो गए हो, तादात्म्य हो गया है। तुम मन की भीड़ में अपने को डुबा दिए हो, भूल गए हो, विस्मरण कर दिए हो। और यही मन तुम्हें भरमाए है। इसी मन का नाम संसार है।

संसार से तुम अर्थ मत समझना–ये निर्दोष हरे वृक्ष संसार नहीं हैं। इन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है! कभी छाया दे दी होगी भला, और कभी फल दे दिए होंगे, और कभी तुम पर फूल बरसा दिए होंगे। इन वृक्षों ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? इन चांदत्तारों ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? दिया है खूब, लिया तो तुमसे कुछ भी नहीं है। संसार से तुम अर्थ यह जो विस्तार है अस्तित्व का, ऐसा मत समझ लेना। इस संसार से तुम्हारी क्या हानि हुई है? क्या हानि हो सकती है? यही संसार तो तुम्हें जीवन दे रहा है।

नहीं, जिस संसार से भक्त कहते हैं मुक्त हो जाओ, वह है तुम्हारे मन का संसार, मन का विस्तार। तुम्हारे मन में जो ऊहापोह चलता है, वह जो भीड़ तुम्हारे मन में सदा मौजूद रहती है, वह जो तरंगें बनी रहती हैं विचार की। और जिनके कारण तुम कभी शांत नहीं हो पाते, और जिनके कारण तुम सदा ही बिगूचन और विडंबना में उलझे रहते हो, जिनके कारण तुम सदा किंकर्तव्यविमूढ़ हो–क्या करूं, क्या न करूं? यह करूं, वह करूं? और मन हजार योजनाएं देता है। कोई योजना न कभी पूरी होती, न पूरी हो सकती है। और मन तुम्हें कितने सब्जबाग दिखलाता है, कितने मरूद्यान! कितने सुंदर-सुंदर सपने देता है और उलझाता है और भरमाता है और अटकाता है। मन माया है, संसार माया नहीं है। मन का संसार ही माया है।

उनमनि का अर्थ है–जागो! यह जो मन का जाल है, इसके द्रष्टा बनो; भोक्ता न रहो, कर्ता न रहो। इससे जरा दूर हटो, इसके जरा पार हटो। रास्ते की भीड़ में अपने को एक न मानकर रास्ते के किनारे खड़े हो जाओ। रास्ते के किनारे खड़े हो जाना और रास्ते को चलते देखना, ऐसे जैसे हमें रास्ते से कुछ लेना-देना नहीं है–निरपेक्ष, निष्पक्ष, उदासीन, तटस्थ, साक्षी मात्र–और उनमनि दशा फलेगी। क्योंकि जैसे ही तुम मन से अलग हुए कि मन मरा।

तुम्हारे सहयोग से ही मन के विचार चलते हैं। तुम्हारी ही ऊर्जा उन्हें जीवन देती है। उनकी अपनी कोई ऊर्जा नहीं है, तुम्हीं अपने सहयोग से उनमें प्राण डालते हो, श्वासें डालते हो। तुम्हारी ही श्वासों से वे जीते हैं और तुम्हारे ही हृदय की धड़कन से धड़कते हैं। तुमने हाथ खींच लिया कि उनके आधार गए, कि वे ताश के पत्तों के महल की तरह गिर जाएंगे। उनके गिरने में क्षण-भर का भी विलंब नहीं होगा। वे तुम्हारे मेहमान हैं, तुम मेजबान हो। तुम उनका स्वागत कर रहे हो, इसलिए वे तुम्हारे मन में टिक गए हैं। जिस दिन तुम्हारा स्वागत तुम वापिस लौटा लोगे और उन्हें नमस्कार कर लोगे और कहोगे–बहुत हो गया! और हट जाओगे स्वागत से, उसी दिन मेहमान विदा होने शुरू हो जाएंगे! और तब आती है चित्त की उनमनि दशा। धीरे-धीरे विचार दूर होते जाते हैं, दूर और दूर…।

और मजा समझ लेना, जैसे-जैसे विचार दूर होते हैं, वैसे-वैसे परमात्मा करीब होता है। जितने ज्यादा विचार तुम्हारे मन में हैं, उतनी ही परमात्मा से ज्यादा दूरी है; जितने कम विचार रह जाएंगे, उतनी ही कम दूरी। विचार का अनुपात परमात्मा से दूरी है। उसी अनुपात में दूरी होती है। जिस दिन विचार बिलकुल शून्य हो जाएंगे, उस दिन कोई दूरी न रह जाएगी। संन्यास की एक ही प्रक्रिया है–उनमनि मुद्रा! इसलिए संन्यास को बाहर से आयोजित नहीं करना होता। क्या खाएं, क्या पीएं, कैसे उठें, कैसे बैठें–यह सब गौण है। असली बात भीतर घटती है, अंतरतम में।

कहै वाजिद पुकार 

ओशो 

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