पहले मनुष्य बनो, फिर मनुष्य से मुक्त हो जाओ। मनुष्य के ऊपर बड़ा
दायित्व है क्योंकि मनुष्य पर परमात्मा ने बड़ा भरोसा किया है। सारे पशुओं
को पूरा पूरा पैदा कर दिया है क्योंकि भरोसा नहीं है कि वे अपने से ऊपर बढ़
पाएंगे। आदमी को खाली छोड़ दिया, स्वतंत्रता दी है। अवसर दिया है कि तू अपने
को बना, निर्मित कर। इस अर्थ में मनुष्य को परमात्मा ने स्रष्टा बनाया है
कि तू अपना सृजन कर। और सृजन में आनंद है। और जो अपने को बना लेगा उसके
आनंद की कोई सीमा नहीं है।
थोड़ा सोचो तो! जब एक मां एक बच्चे को जन्म देती है तो कैसी महिमा मंडित
हो जाती है! कैसी आभा झलकने लगती है! जब तक स्त्री मां नहीं बनती तब तक
उसमें एक आभा की कमी होती है; तब तक स्त्री कल जैसी होती है, फूल नहीं
होती। जब एक बच्चे को जन्म देती है तब पंखुड़ियां खुल जाती हैं, तब फूल हो
जाती है।
तुमने गर्भवती स्त्री को देखा? उसके चेहरे पर एक दीप्ति आ जाती है। उसके
भीतर एक नया जीवन उमग रहा है, एक नया प्राण, एक नया प्रारंभ। परमात्मा ने
उसे एक धरोहर दी है।
और जब कोई स्त्री मां बन जाती है तो सिर्फ बच्चे का ही जन्म नहीं होता;
वह एक पहलू है सिक्के का। दूसरा पहलू यह है कि एक मां का भी जन्म होता है।
स्त्री स्त्री है, लेकिन मां बात ही और है। मातृत्व का जन्म होता है, प्रेम
का जन्म होता है।
तुमने एक कवि की कविता को पूरा होते देखा? तब वह नाच उठता है। उसने कुछ
बनाया। तुमने एक चित्रकार को अपने चित्र को पूरा करते देखा है? उसकी आंखें
देखीं? कैसा विस्मय विमुग्ध! भरोसा नहीं कर पाता कि मुझसे और यह हो सकता
है? संगीतज्ञ जब सफल हो जाता है संगीत को जन्माने में तो उसके प्राण आनंद
की बाढ़ से भर जाते हैं।
मगर ये सब छोटे सुख हैं। जब कोई व्यक्ति अपने भीतर बुद्धत्व को जन्माने
में सफल होता है, उसके सामने ये सब छोटे सुख हैं। सारे संगीतज्ञ, सारे कवि,
सारे चित्रकार, सारे मूर्तिकार भी इकट्ठे हो जाएं तो उसे एक आनंद का…..कोई
तुलना नहीं हो सकती। सब इकट्ठे हो जाएं तो भी उस आनंद के सामने बूंद की
तरह हैं, वह आनंद सागर की तरह है।
अपने को सृजन करने का आनंद , अपने भीतर छिपी हुई संभावना को वास्तविक
बना लेने का आनंद…..। सृजन का अर्थ क्या है? सृजन का अर्थ है : जो अदृश्य
है। उसे दृश्य में लाना। अभी तक कविता नहीं थी जगत् में और तुमने एक कविता
बनाई अदृश्य में थी, उसे खींचकर दृश्य में लाए। शून्य में थी, उसे शब्द का
परिधान दिया। अव्यक्त थी, उसे व्यक्त किया।
एक मूर्तिकार ने मूर्ति बनाई। अभी पत्थर अनगढ़ पड़ा था। किसी ने सोचा भी न
था कि इस पत्थर में कुछ हो सकता है। उसने छेनी उठाई और पत्थर में मूल्य आ
गया और पत्थर में जीवन मालूम होने लगा। पत्थर में बुद्ध उठे कि मीरा उठी कि
कृष्ण उठे, कि पत्थर में बांसुरी बजी, कि पत्थर में फूल खिले। जो अदृश्य
था वह दृश्य हुआ।
सबसे बड़ा अदृश्य कौन है? परमात्मा सबसे बड़ा अदृश्य है; और जब तुम्हारे
भीतर दृश्य हो जाता है तो सबसे बड़े सृजन की घटना घटती है। मनुष्य का संघर्ष
यही सृजन है। परमात्मा को जन्म देना है।
नाम सुमिर मन बाँवरे
ओशो
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